हार्वर्ड विश्वविद्यालय अकादमिक उत्कृष्टता का वैश्विक प्रतीक है. अब वह अमेरिकी सरकार के साथ जारी राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिरोध का केंद्र बन गया है.
छात्र, फैकल्टी, पूर्व छात्र और प्रशासन सभी इस समय एकजुटता, अवहेलना, भय और उम्मीद में डूबते-उतराते दिख रहे हैं. जहां वे तरह-तरह के विचार प्रकट करते हैं.
वहीं समुदाय के मजबूत भाव और साझा काज के एहसास पर एकसाथ दिखते हैं और उनका साझा काज है अभिव्यक्ति विमर्श और विचारों की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई.
हार्वर्ड के अंडरग्रेजुएट कॉलेज और 12 ग्रेजुएट स्कूलों में 27 फीसद अंतरराष्ट्रीय छात्र हैं. इनमें से करीब 800 भारतीय हैं. ये छात्र और हाल में ओपीटी (ऑप्शनल प्रैक्टिकल ट्रेनिंग-छात्र वीजा से जुड़ा एक पोस्ट ग्रेजुएट वर्क परमिट) स्नातक असमंजस में हैं.
देश में उनकी मौजूदगी की वैधता सवालों के घेरे में है. इससे उपजे खतरों में शामिल है उनकी घर वापसी, निर्वासन, स्कूल बदलने के लिए मजबूर होना और वर्षों के उनके शैक्षणिक प्रयास और शोध का नुकसान.
लैब में शोध करने वालों पर इसका असर पहले से ही महसूस किया जा रहा है क्योंकि वे 'अस्तित्व बचाने के लिए’ लड़ रहे हैं. एक फैकल्टी के सदस्य ने कहा, ''इससे जो नुकसान और व्यवधान हो रहा है, उसे कम करके आंकना मुश्किल है.’’ संभावित जीवन-रक्षक थैरेपी पर काम करने वाले एक युवा शोधार्थी ने कहा, ''वर्षों का काम बर्बाद हो सकता है.
यह कल्पना नहीं है. ये वास्तविक लोग हैं, वास्तविक इलाज हैं, वास्तविक नतीजे हैं.’’ एक अन्य ने पूछा, ''अगर हम सड़क से उठाए जाने के खौफ में रहेंगे तो हमसे बौद्धिक खोज और सामाजिक भलाई के लिए अपने दिल और दिमाग का इस्तेमाल करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?’’
न्यायालयों से मिली अस्थायी राहत उम्मीद की किरण है, मगर हर किसी ने मान लिया है कि यह लड़ाई लंबी चलेगी. कुछ लोगों की नजर में ट्रंपप्रशासन के साथ मौजूदा घटना आश्चर्य की बात नहीं है. पिछले कुछ महीनों में रिपब्लिकनों ने उच्च शिक्षा के ऐसे संस्थानों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नियंत्रण के प्रस्ताव दिए हैं, जिन्हें वे वैचारिक रूप से अनुरूप नहीं मानते.
तनाव बढ़ गया जब अमेरिकी सरकार की ओर से एक पत्र भेजा गया. पत्र गलती से 11 अप्रैल को भेजा गया बताया था, जिसमें 3 अप्रैल के पत्र से आगे की विस्तृत मांगों के बारे में बताया गया था. पत्र में विश्वविद्यालय प्रशासन के ढांचे में आमूल बदलाव, इसकी डायवर्सिटी, इक्विटी और इन्कलूजन (डीईआइ) पहलों को खत्म करने, अंतरराष्ट्रीय छात्रों के विचारों की सख्त जांच, प्रवेश मानदंडों में बदलाव और छात्र विरोधों के खिलाफ सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए कहा गया.
हार्वर्ड ने प्रथम संशोधन संरक्षण और अकादमिक स्वतंत्रता का हवाला देते हुए इसे मानने से मना कर दिया. विश्वविद्यालय अध्यक्ष एलन गार्बर ने कहा, ''कोई भी सरकार, चाहे कोई पार्टी सत्ता में हो, यह तय नहीं कर सकती कि निजी विश्वविद्यालय क्या पढ़ा सकते हैं, वे किसे प्रवेश दे सकते और किसे नियुक्त कर सकते हैं तथा अध्ययन और विमर्श के कौन-से क्षेत्र चुन सकते हैं.’’
जवाब में संघीय सरकार ने कैंसर, अल्जाइमर, टीके आदि में शोध के लिए अनुदान समेत रिसर्च फंडिंग के 2.2 अरब डॉलर रोक दिए और हार्वर्ड की कर-मुक्त स्थिति और अंतरराष्ट्रीय छात्रों को बुलाने की क्षमता को रद्द करने की धमकी दी.
स्थिति और खराब हो गई जब हार्वर्ड ने फंडिंग फ्रीज करने के खिलाफ सरकार पर मुकदमा कर दिया. 22 मई को गृह सुरक्षा विभाग (डीएचएस) ने विश्वविद्यालय पर ''हिंसा, यहूदी विरोधी भावनाएं भड़काने और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समन्वय’’ का आरोप लगाया और इसके एसईवीपी (स्टूडेंट और एक्सचेंज विजिटर प्रोग्राम) सर्टिफिकेशन को रद्द करने का कदम उठाया. इससे लगभग 7,000 अंतरराष्ट्रीय छात्रों और ओपीटी वर्क परमिट पर काम करने वाले हजारों लोगों की कानूनी स्थिति खतरे में पड़ गई.
हार्वर्ड ने गृह सुरक्षा विभाग को अदालत में चुनौती दी और अगले ही दिन उसे अस्थायी राहत मिल गई. 29 मई को और भी राहत मिली. हालांकि 4 जून को ट्रंप प्रशासन ने ''सुरक्षा खतरे’’ का हवाला देकर 4 जून को हार्वर्ड में पढ़ने के इच्छुक सभी विदेशी छात्रों के प्रवेश को छह महीनों के लिए रोक दिया. हार्वर्ड ने ''अपने अंतरराष्ट्रीय छात्रों की हिफाजत करने’’ का वादा किया है. इससे पहले विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने सभी नए छात्रों के वीजा साक्षात्कारों पर वैश्विक रोक लगाने का आदेश दिया.
हार्वर्ड अब अमेरिकी सरकार के साथ दो कानूनी मोर्चों पर लड़ रहा है: एक रिसर्च फंडिंग को लेकर और दूसरी अंतरराष्ट्रीय छात्रों को बुलाने की अपनी हैसियत को लेकर. उसने अकादमिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, कोलंबिया विश्वविद्यालय के विपरीत, मजबूत सार्वजनिक रुख भी अपनाया है. कोलंबिया ने संघीय मांगों को लगभग पूरी तरह मान लिया है.
इस स्थिति के कारण अमेरिका में अध्ययन के इच्छुक भारतीय छात्रों के भविष्य पर साया मंडरा गया है, विशेष रूप से निशाने पर रहने वाले हार्वर्ड और अन्य संस्थानों को लेकर. भले ही अदालतें हार्वर्ड का पक्ष लेना जारी रखें, मगर अनिश्चितता के कारण छात्र अपनी योजनाओं पर फिर से विचार करने को मजबूर हो सकते हैं. यह तनाव कुछ-कुछ भारत की चुनौतियों जैसा भी है. जेएनयू, टीआइएसएस और अशोका की घटनाएं अकादमिक स्वतंत्रता और सरकार के नियंत्रण के बीच इसी तरह के सवाल उठाती हैं.
इस अराजकता के बीच एक बात तय है—शैक्षणिक स्वतंत्रता का संघर्ष जारी है और इसका बौद्धिक विमर्श अमेरिका की उच्च शिक्षा के प्रति वैश्विक धारणा और भारत और चीन जैसे देशों के साथ अमेरिका के द्विपक्षीय संबंधों पर संभावित असर डाल सकता है. विदेशी छात्रों का सबसे बड़ा समूह भारत और चीन का होता है. इससे अमेरिकी सॉफ्ट पावर के भी कमजोर पड़ने का खतरा है.
उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड असाधारण विरोध कर रहा है. हार्वर्ड कॉर्पोरेशन ने फंडिंग में कटौती से निबटने के लिए अपनी 50 अरब डॉलर से ज्यादा की स्थायी निधि में से 25 करोड़ डॉलर आवंटित किए हैं. अमेरिका और दुनिया भर में अधिकांश संस्थानों के पास ऐसे संसाधनों या स्वायत्तता का अभाव है. अन्य लोग इससे सीखेंगे, मगर सभी सबक सार्वजनिक हित में नहीं होंगे.
आशीष खुल्लर (लेखक हार्वर्ड विश्वविद्यालय में फेलो हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)