- अरुण पुरी
करीब आधी सदी से हिंदुस्तानी मिडल क्लास का एक सपना रहा है—अमेरिका की किसी यूनिवर्सिटी से डिग्री लेना, जिससे उनका भविष्य रोशन हो सके. हाल के बरसों में इस सपने के पीछे भागने वालों की तादाद काफी बढ़ गई है. 2023-24 में भारत ने अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले इंटरनेशनल स्टूडेंट्स की लिस्ट में चीन को पीछे छोड़ते हुए पहली बार टॉप पोजिशन हासिल की.
कुल 11 लाख से ज्यादा विदेशी छात्रों में से 3,31,602 भारतीय थे—यानी तकरीबन 30 फीसद. मगर अब यह सपना टूटता-सा लग रहा है. ऐन उस वक्त जब ये नौजवान अपनी जिंदगी के सफर की उड़ान भरने ही वाले थे, सब कुछ थमता दिख रहा है. डोनाल्ड ट्रंप की अगुआई वाली अमेरिकी सरकार अपने यहां के विश्वविद्यालयों में इंटरनेशनल स्टूडेंट्स के पैरों तले से वेलकम मैट खींच रही है.
उन्होंने दुनियाभर के अमेरिकी दूतावासों में नए स्टूडेंट वीजा अपॉइंटमेंट्स को उस वक्त तक रोक दिया है जब तक कि और सख्त नियम लागू न हो जाएं. अब तो वीजा आवेदकों के सोशल मीडिया पोस्ट्स की भी जांच होगी. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में विदेशी छात्रों की संख्या को 31 फीसद से घटाकर 15 फीसद करने का प्रस्ताव भी है.
बदतर तो यह है कि ऑप्शनल प्रैक्टिकल ट्रेनिंग (ओपीटी) प्रोग्राम—जिससे 2023-24 में 97,556 भारतीय छात्रों को अमेरिका में काम का अनुभव मिला—अब बंद हो सकता है या बहुत कमजोर किया जा सकता है. जिन छात्रों के वीजा रद्द हुए हैं उनमें लगभग 50 फीसद भारतीय ही हैं, जिन्हें अब अमेरिका से स्वदेश भेजा जा सकता है.
दुनियाभर के अनगिनत नौजवान छात्र एक अनिश्चित और परेशान करने वाली स्थिति में फंसे हुए हैं; और इनमें ज्यादातर भारत के ही हैं. घबराहट का माहौल है. ज्यादातर छात्र जिनसे इस पत्रिका ने संपर्क किया—चाहे वे अमेरिका में हों या वहां जाने की तैयारी कर रहे हों—गुमनाम रहना चाहते थे, ताकि उनके वीजा स्टेटस पर कोई असर न पड़े. एक 24 वर्षीया छात्रा की कहानी मौजूदा हालात की बानगी है.
उन्हें एक अमेरिकी यूनिवर्सिटी में कंप्यूटर साइंस (एआई स्पेशलाइजेशन) में मास्टर्स के लिए एडमिशन मिला, मगर बिना किसी कारण के वीजा रिजेक्ट हो गया. उन्होंने दोबारा आवेदन दिया है और दुआ कर रही हैं कि इस बार वीजा मिल जाए. अगर उनके जैसे छात्रों के लिए प्रक्रिया अनुकूल नहीं रही तो उन्होंने जो वक्त, पैसा और मेहनत लगाई, वह सब बर्बाद हो जाएगा.
हर यूनिवर्सिटी के ऐप्लिकेशन का खर्च 10,000 से 15,000 रुपए तक होता है, और एजुकेशन कंसल्टेंट्स अमूमन 5-6 लाख रुपए चार्ज करते हैं. बहुत-से छात्रों ने तो पहले ही ट्यूशन फीस भर दी है या हॉस्टल बुक कर लिया है, जो वीजा न मिलने पर वापस नहीं मिल पाएगा. जैसा कि द आईवी लीग एज के बी.के. शुक्ला कहते हैं, "असली नुक्सान तो अवसर गंवाने का है. और जो इस सिस्टम से पीडि़त हैं, उनके पास कानूनी रास्ते भी लगभग बंद हैं क्योंकि अमेरिकी विदेश मंत्रालय पर विदेश में वीजा रिजेक्शन के लिए मुकदमा नहीं किया जा सकता."
इस पूरी सख्ती के पीछे राजनीति, नस्लीय सोच और आर्थिक डर की एक मिलीजुली मानसिकता है. ट्रंप के 'अमेरिका फर्स्ट विजन' के मुताबिक, विदेशी छात्र नौकरियां छीन लेते हैं, ठीक वैसे ही जैसे टैरिफ से अमेरिकी कामगारों की नौकरियां जाती हैं.
उनके ट्रेड टैरिफ ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार को झटका दिया था, अब विश्वविद्यालयों पर निशाना उस इकलौते क्षेत्र पर हमला है जिसमें अमेरिका अब तक दुनिया में सबसे आगे रहा. हालांकि इसका मुख्य निशाना चीनी छात्रों को माना जा रहा है—यह सोचकर कि वे तकनीकी जानकारी चुराते हैं—पर भारतीय छात्र जैसे दोतरफा गोलाबारी का शिकार हो बैठे हैं.
इसमें एक अंदरूनी परियोजना शामिल है, जिसे अमेरिकी रूढ़िवादी दक्षिणपंथ ''सिस्टम की सफाई" कहते हैं. इसमें विश्वविद्यालयों को दी जाने वाली जरूरी शोध धनराशि को बंद करना भी शामिल है. हार्वर्ड जैसे नामी-गिरामी संस्थान, जो लिबरल आर्ट्स और खुली सोच को अहमियत देते हैं, अब दुश्मन के रूप में देखे जा रहे हैं.
ट्रंप समर्थक सोच के लिए ये संस्थान ऐसे टापुओं की तरह हैं जो दुश्मनी और अविश्वास भड़काते हैं—ऐसे विचारधारात्मक केंद्रों से उन्हें नफरत है. इसका सबसे तीखा असर वीजा नियमों में जोड़े गए नए पहलू में दिखता है: सोशल मीडिया अकाउंट्स की सख्त जांच. साइबरस्पेस अब वह अग्रिम मोर्चा है जहां गजा जैसे संवेदनशील मुद्दों पर वैश्विक विचारधारात्मक लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं.
वॉशिंगटन नहीं चाहता कि असहमति उसकी कक्षाओं में प्रवेश करे. लेकिन डर बेतुका और अंधा होता है. वरमॉन्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पाब्लो एस. बोस कहते हैं कि इस दमनात्मक नीति के ''पहले ही विनाशकारी परिणाम हो चुके हैं". कोलंबिया यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर एलोरा मुखर्जी कहती हैं कि यह नीति ''क्रूरता, श्वेत राष्ट्रवाद, और नस्लवाद से प्रेरित लगती है", और अब वीजा से जुड़े फैसले पूर्वाग्रह के शिकार हो सकते हैं.
हमारी आवरण कथा इस बदलते हुए संकट का मुकम्मल खाका पेश करती है, जिसमें विभिन्न ब्यूरो से मिली जानकारियों के जरिए हर पहलू को कवर किया गया है. इसके साथ ही एक लेख में हार्वर्ड के कैर-रायन सेंटर फेलो आशीष खुल्लर हमें अंदर से यह कहानी बताते हैं कि कैसे दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक अब ''सर्वाइवल मोड" में चला गया है.
शिक्षकों, काउंसलरों और छात्रों से हमारी बातचीत में उम्मीद की कुछ किरणें भी दिखती हैं. हार्वर्ड की पूर्व छात्रा और रीचआईवी.कॉम की संस्थापक विभा कागजी को लगता है कि ''अमेरिकन ड्रीम" पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, यह बस दोबारा आकार ले रहा है. वे कहती हैं, ''इतिहास गवाह है कि इंटरनेशनल एजुकेशन से जुड़ी नीतियों में बदलाव खुद ही संतुलित होते आए हैं."
पर कुछ लोग अब जर्मनी जैसे सुरक्षित (और सस्ते) विकल्पों की तरफ देख रहे हैं, जहां 2022 से 2024 के बीच 68 फीसद की बढ़ोतरी देखने को मिली है. हम आपको ट्रंप की नीतियों में हुए बदलाव, ऐतिहासिक प्रवृत्तियां, नए वीजा नियमों में किन चीजों पर ध्यान देना है, और संभावित विकल्पों का पूरा विवरण दे रहे हैं.
छात्रों को एक नसीहत: कोई सपना टूटने का मतलब यह नहीं कि सब कुछ खत्म हो गया है. दुनिया अब भी आपके लिए खुला मैदान है.
— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).