
अचानक भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने जाति जनगणना के सवाल पर गजब का यू-टर्न ले लिया. इस मुद्दे पर कई वर्षों तक असमंजस में रहने और उसे विभाजनकारी बताकर मखौल उड़ाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार अब बोली कि वह लंबे समय से विलंबित दशकीय जनगणना में देश की असंख्य जातियों की गणना करेगी. यह अप्रत्याशित मोड़ कई मुद्दों के जटिल अंतर्विरोधों का नतीजा है.
इसमें चुनावी गणित, राज्य-स्तरीय दबावों के अलावा यह धारणा भी है कि जाति की असलियत को अब और अनदेखा नहीं किया जा सकता. पार्टी इसकी ओर से आंख नहीं मूंद सकती, जिसने 'जातिविहीन' हिंदुत्व राष्ट्रवाद के वादे पर अपना ब्रांड बनाया है. सत्तारूढ़ पार्टी की रणनीति में इस फेरबदल को मंडल दौर की पार्टियों को उनके ही मैदान पर मात देने, कांग्रेस के सामाजिक न्याय के नारे को कुंद करने और भाजपा को बहुजन समाज के पैरोकार के रूप में नए सिरे से स्थापित करने के लिए खेले गए राजनैतिक दांव की तरह भी देखा जा रहा है.
दशकों से भाजपा जाति गणना पर कोई रुख अपनाने से बचती रही. हालांकि महाराष्ट्र के प्रमुख ओबीसी नेता दिवंगत गोपीनाथ मुंडे सरीखे कुछ लोगों ने 2011 में संसद में इसके पक्ष में शिद्दत से राय रखी थी, फिर भी पार्टी की दुविधा बनी रही. मोदी मंत्रिमंडल, भाजपा और संघ के समरसता मंच के कई नेता भी जाति गणना के हक में रहे हैं, लेकिन पार्टी की धारा विरोध में ही रही. 2021 में सरकार ने संसद और सुप्रीम कोर्ट दोनों में दोहराया था कि वह ऐसी जनगणना नहीं कराएगी.
भाजपा के सूत्रों के मुताबिक, प्रधानमंत्री मोदी लोगों को चार बड़े समूहों गरीब, युवा, महिला और किसान में बांटकर देखते है, न कि जातियों में. यही नहीं, रोहिणी आयोग 2023 में रिपोर्ट पेश कर चुका है, बावजूद उसके भाजपा ने ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के उप-वर्गीकरण में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. इसमें पार्टी की अपने सामाजिक समीकरण की यथास्थिति न बिगड़ने देने की चिंता दिखती है.
यहां तक कि अक्तूबर 2023 में किरन रिजिजू समेत भाजपा के केंद्रीय मंत्रियों ने चेताया था कि कांग्रेस और राहुल गांधी का 'जितनी आबादी, उतना हक' का नारा 'देश को खत्म कर डालेगा.' दलील यह थी कि इससे बड़ी आबादी और छोटी आबादी में टकराव बढ़ेगा और राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचेगा.
खुद प्रधानमंत्री मोदी ने 2024 की चुनावी रैलियों में कांग्रेस पर जाति के मुद्दे को सुलगाकर 'आग से खेलने' का आरोप लगाया. उन्होंने सवाल किया कि क्या अनुपात के मुताबिक हक का मतलब अल्पसंख्यकों या दक्षिणी राज्यों को पीछे धकेलना है. लेकिन अब वही भाजपा जाति जनगणना को प्रगतिशील कदम बता रही है, इसलिए यह नाटकीय यू-टर्न है.
मंडल 2.0 की मोदी शैली
फिर भी, सचाई यही है कि आज की भाजपा 1990 के मंडल के दौर की ऊंची जातियों की पार्टी से काफी आगे निकल आई है. मोदी खुद ओबीसी हैं. उन्होंने भाजपा की ब्राह्मण-बनिया-राजपूत पार्टी की छवि को तोड़ने के लिए बड़ी मशक्कत की और हिंदुत्व की अपील को जातिगत दायरे के आगे विस्तार दिया. संघ परिवार के भीतर कई लोग अब तर्क देते हैं कि जाति जनगणना को स्वीकार करना उसका स्वाभाविक विस्तार है.
भाजपा के रुख में इस फेरबदल को समझने के लिए यह गौर करना जरूरी है कि हाल के वर्षों में मंडल दौर की राजनीति नए सिरे से उठ खड़ी हुई है. 'मंडल 2.0' जुमला जाति-आधारित सामाजिक न्याय के लिए नई पेशबंदी का इजहार है. इससे 1990 के दशक की शुरुआत की याद आ जाती है, जब ओबीसी आरक्षण लागू हुआ तो देश की राजनीति की तस्वीर ही बदल गई.
2024 के आम चुनाव से पहले कांग्रेस और समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) जैसी सियासी ताकतों की अगुआई में विपक्ष ने जातिगत गैर-बराबरी की बहस को फिर उछाला. संदेश साफ था कि ओबीसी और अन्य वंचित समूह बहुसंख्यक हैं तो समूची व्यवस्था में उनका प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों है? उन्होंने देशव्यापी जाति जनगणना और उसके नतीजों के आधार पर नीतियों में बदलाव का वादा किया, जिसमें शिक्षा और नौकरियों में 50 फीसद आरक्षण की सीमा को बढ़ाना शामिल है.
वर्ष 2023 के अंत तक इस मुद्दे ने जोर पकड़ लिया. बिहार में जाति सर्वेक्षण पूरा हो गया था, कर्नाटक में लंबे समय से लंबित जाति गणना रिपोर्ट पर फिर से विचार किया गया, और कांग्रेस शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी इसी तरह के सर्वेक्षण की योजना बना रहे थे.

यह भाजपा को सीधी चुनौती थी. उसने पिछले दशक भर में जातिगत पहचान के बजाय धर्म (हिंदू बनाम अन्य) और राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द अपना राजनैतिक एजेंडा तैयार किया था. शुरुआत में भाजपा ने जाति पहचान की राजनीति को प्रतिगामी बताकर उसका मुकाबला करने की कोशिश की. उसने राष्ट्रीय एकता के खतरे का हौवा खड़ा करने की कोशिश की. यही नहीं, उसने जाति जनगणना की व्यावहारिक कठिनाइयों (जैसे हजारों उप-जातियों को समझने और उनकी गणना की जटिलता) की ओर भी इशारा किया.
लेकिन पर्दे के पीछे भाजपा खेमे में खतरे की घंटी बजने लगी थी. पार्टी के रणनीतिकारों का ध्यान 2018 में अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अध्ययन पर जरूर गया होगा, जिसमें बताया गया कि 55 फीसद मतदाता अपनी जाति के नेता को पसंद करते हैं. अगस्त 2021 में दिल्ली में एक पुस्तक विमोचन में आरएसएस के सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबाले ने जाति जनगणना की आवश्यकता का समर्थन किया, ताकि 'पिछड़ों में अति पिछड़ों' तक लाभ पहुंचे.
वह ऐतिहासिक पल था. संघ के एक शीर्ष नेता ने सामाजिक समानता में जाति की भूमिका को माना था. जैसा कि केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान कहते हैं, ''सामाजिक सद्भाव के लिए व्यवस्थित सुधार की जरूरत है. आप आजादी के सिर्फ 78 साल में सदियों की वंचना को दूर नहीं कर सकते. जाति सर्वेक्षण से हमें समाज की सही संरचना को समझने और बेहतर नीति बनाने में मदद मिलेगी."
सभी हिंदुओं के लिए
असल में 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत हिंदू राष्ट्रवाद की अपील, कल्याणकारी योजनाओं और विशुद्ध संगठन की ताकत के जरिए जाति समीकरणों को तोड़ पाने में कामयाबी की वजह से हुई थी. जाति जनगणना पर हां कहने से भाजपा को अपना नैरेटिव 'हिंदू बनाम अन्य’ से आगे 'पिछड़े हिंदू समुदायों के लिए न्याय’ तक ले जाने का मौका मिलता है.
मोदी के पास अब खुद को अपनी शर्तों पर ओबीसी का चैंपियन कहलाने का अवसर है. भाजपा प्रवक्ताओं ने इस छवि को निखारने का अभियान शुरू कर दिया है. उनका जोर है कि मोदी सरकार ने नीट या एनईईटी में 27 फीसद ओबीसी आरक्षण लागू किया, 2018 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया और आजाद भारत में सबसे ज्यादा ओबीसी सांसद और मंत्री बनाए हैं.
मकसद ओबीसी मतदाताओं को आश्वस्त करना है कि भाजपा अब अतीत की ऊंची जाति-प्रधान पार्टी नहीं है, बल्कि व्यापक मंच है जिसमें उनकी आकांक्षाओं का ख्याल है. राजनीति विज्ञानी आशुतोष कुमार कहते हैं, ''भाजपा हिंदुओं की पार्टी नहीं कहलाना चाहती. वह हर हिंदू की पार्टी बनना चाहती है."
जाति जनगणना के समर्थन से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के भीतर भाजपा की पैठ भी मजबूत होती है, जहां कई सहयोगी खास जाति समूहों के समर्थन पर निर्भर हैं. उत्तर प्रदेश में अपना दल की पैठ कुर्मी ओबीसी मतदाताओं में है, जबकि निषाद पार्टी की मछुआरा समुदाय में. राजस्थान में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी की अपील कुछ ओबीसी वर्गों में है. इन सहयोगियों ने जाति जनगणना का स्वागत किया है क्योंकि यह जाति-आधारित प्रतिनिधित्व की उनकी राजनीति के अनुरूप है.
यहां तक कि भाजपा के साथ गठबंधन में पूर्व प्रतिद्वंद्वियों ने भी जाति के आंकड़ों में लंबे समय से रुचि दिखाई है. बिहार में नीतीश कुमार जाति सर्वेक्षण के साथ आगे बढ़ गए हैं, और महाराष्ट्र में अजित पवार मराठों को आरक्षण दिलाने के हक में हैं. जाति जनगणना का समर्थन करके भाजपा ने न केवल उनकी मांगों को माना है, बल्कि सामाजिक न्याय के विमर्श में एनडीए की प्रासंगिकता को भी मजबूत किया है. यह कदम सहयोगियों को आश्वस्त करता है कि भाजपा इस राजनैतिक जगह को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है, न कि उसे विपक्ष के लिए छोड़ रही है.
आलोचकों का लंबे समय से यह मानना है कि सिर्फ हिंदू ओबीसी ही नहीं, बल्कि पिछड़े मुसलमान और ईसाई भी आरक्षण के हकदार हैं. फैयाज अहमद फैजी जैसे एक्टिविस्ट जाति जनगणना में मुस्लिम ओबीसी, एससी और एसटी को शामिल करने की मांग करते हैं. सुप्रीम कोर्ट में पश्चिम बंगाल अपने 2010-12 के 77 ओबीसी समुदायों को आरक्षण का बचाव कर रहा है, उनमें से 75 मुसलमान हैं. भाजपा ने इसके विरोध को बड़ा मुद्दा बनाया.
हालांकि कई राज्यों ने मुस्लिम ओबीसी को अपनी आरक्षण सूची में शामिल किया है, लेकिन केंद्र की सूची संकीर्ण है, जिसमें अक्सर पिछड़े मुस्लिम समूहों को अगड़े अशरफों के साथ जोड़ दिया जाता है. मोदी ने अक्सर उनके हाशिए पर होने की वजह धर्म के बजाए सामाजिक-आर्थिक बताई है. वरिष्ठ भाजपा नेता तथा केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव का दावा है कि आलोचकों के दोहरे रवैए से पर्दा उठ जाएगा. वे कहते हैं, ''वर्षों से मुसलमानों के साथ वोट बैंक जैसा बर्ताव किया गया, उनके भीतर गैर-बराबरी को अनदेखा किया गया. इससे पसमांदा मुसलमानों और औरतों को खामियाजा भुगतना पड़ा. पारदर्शी आंकड़ों से इस फर्क को मिटाने में मदद मिलेगी."
राज्य और जातियां
जाति जनगणना का मुद्दा राजनीतिक तौर पर बिहार और उत्तर प्रदेश से ज्यादा सरगर्म और कहीं नहीं है. बिहार की महागठबंधन सरकार ने 2023 में जाति सर्वेक्षण करवाया था, जिससे पता चला कि ओबीसी और ईबीसी (अति पिछड़े वर्ग) राज्य की आबादी के 63 फीसद हैं और एससी तथा एसटी के साथ मिलकर यह आंकड़ा कुल 84 फीसद पर पहुंच जाता है. इन नतीजों से पिछड़ी जातियों के नेताओं के लंबे वक्त से किए जा रहे इन दावों की तस्दीक हो गई कि संख्याबल ज्यादा होने के बावजूद नौकरियों और शिक्षा में उनकी बहुत कम नुमाइंदगी है.
जवाब में राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तय आरक्षण की 50 फीसद की सीमा तोड़कर इसे 65 फीसद करने की पहल की. 2024 में पटना हाई कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया. मामला अब सर्वोच्च अदालत में है. दिलचस्प यह है कि भाजपा ने 2022 में राज्य में जाति जनगणना के प्रस्ताव का समर्थन किया, उसे पता जो था कि ओबीसी पहचान की अहमियत वाले राज्य में इसकी राजनैतिक कीमत क्या हो सकती है. बिहार में इस साल के अंत में चुनाव होने हैं और जाति जनगणना को केंद्र की मंजूरी क्षेत्रीय पार्टियों से ओबीसी नैरेटिव को हथियाने की भाजपा की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.
जहां तक भाजपा का गढ़ माने जाने वाले उत्तर प्रदेश की बात है, पिछले साल लोकसभा चुनाव में उसकी जमीन हिल गई थी. जिस हिंदुत्व-समर्थित जाति गठबंधन (गैर-यादव ओबीसी, गैर-जाटव दलित) के बूते उसने 2014 और 2019 के चुनावों में अच्छी-खासी सीटें बटोरी थीं, वह दरकता दिखाई दिया. अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने पीडीए पर जोर देकर यानी मंडल 2.0 बैनर के तले पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करके उसका भरपूर फायदा उठाया.
नतीजा यह हुआ कि भाजपा की सीटें (80 में से) 62 से घटकर 36 पर आ गईं, जबकि सपा-कांग्रेस गठजोड़ ने 43 सीटें झटक लीं. चुनाव बाद डेटा से भाजपा के ओबीसी आधार के खिसकने का पता चला—कुर्मी-कोइरियों के बीच एनडीए के समर्थन में 19 फीसद तक और अन्य गैर-यादव ओबीसी में 13 फीसद तक की कमी आई. 'अगड़े ओबीसी’ समर्थन में भी 4 फीसद तक की गिरावट आई.
उधर, महाराष्ट्र में जाति समीकरण में जाति जनगणना से नई रवानगी जुड़ गई है. रसूखदार मराठा खेती के संकट का हवाला देकर लंबे वक्त से आरक्षण की मांग करते आए हैं. 2018 में उन्हें 16 फीसद कोटे की मंजूरी दी गई, लेकिन 50 फीसद की सीमा का उल्लंघन होने और पिछड़ेपन के मानदंड़ों को पूरा न करने के कारण 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद्द कर दिया. इससे तनाव फिर सुलग उठा, जब मराठा ओबीसी दर्जे की मांग करने लगे और मौजूदा ओबीसी धड़े अपने हिस्से में कटौती का विरोध.
अब मराठों से भरे (अजित पवार, एकनाथ शिंदे) गठबंधन के साथ सत्ता में लौटकर भाजपा भंवर में फंसी है. निकलने का रास्ता जाति जनगणना में है—इससे मिले आंकड़ों से वास्तविक पिछड़ेपन का आकलन करके शायद दोनों पक्षों को संतुष्ट किया जा सकेगा. इससे 2021 के अदालत के उस फैसले का मसला भी हल होगा, जिसमें आंकड़ों की कमी की वजह से स्थानीय निकायों के चुनावों में ओबीसी कोटा रद्द कर दिया गया था, जिससे बेचैनी पैदा हुई थी. जाति जनगणना के आंकड़ों के बल पर भाजपा ओबीसी से कोटे की वापसी का वादा कर सकती है और मराठों को यह भरोसा दिला सकती है, जो उसके ओबीसी प्रबंधन का आदर्श उदाहरण होगा.

जोखिम और दुष्परिणाम
जाति जनगणना के समर्थन में जहां भाजपा को रणनीतिक फायदे दिखाई देते हैं, अपने पारंपरिक समर्थन आधार—सवर्ण जातियों के हिंदू और आकांक्षी शहरी मध्यम वर्ग—के मामले में वह दो फाड़ों के बीच फंसी है. इन समूहों का मन लंबे वक्त से जातिगत बंटवारों से ऊपर उठकर योग्यता-आधारित एकजुट भारत के उसके वादे से जुड़ा रहा है. उसके लिए जाति गणना का मर्म पहचान की उसी राजनीति के जिंदा होने के जोखिम में है जिससे कभी भाजपा ऊपर उठना चाहती थी.
बेचैनी इसको लेकर भी बढ़ रही है कि आंकड़े आरक्षण बढ़ाने को सही ठहरा सकते हैं, जिससे नौकरियों और शिक्षा में सवर्ण जातियों की जगह और सिकुड़ सकती है. सवर्ण जातियों के कुछ धड़े पहले ही 1990 के दशक में मंडल आयोग के प्रति हुई तीखी प्रतिक्रिया की यादें जगाते हुए 'मंडल 2.0’ की चेतावनी दे रहे हैं.
शंकालुओं का कहना है कि जाति जनगणना से भानुमती का पिटारा खुल सकता है—सटीक आंकड़ों से न केवल ओबीसी बल्कि सवर्ण जातियों की तरफ से भी आरक्षण देने या बढ़ाने की मांगें सुलग सकती हैं और उपजातियों के बीच फायदों के लिए मची होड़ के चलते जातियों के भीतर प्रतिद्वंद्विताओं को बढ़ावा मिल सकता है. उनका गुस्सा शांत करने के लिए भाजपा 2019 में सामान्य श्रेणी के गरीब लोगों के लिए 10 फीसद ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर तबके) कोटा लाने का हवाला दे सकती है, जिसे सवर्ण जातियों के असंतोष के प्रति सुरक्षा वॉल्व के तौर पर देखा गया था.
यही नहीं, जाति जनगणना के आंकड़ों के आधार पर आरक्षण बढ़ाने या श्रेणियों की नई परिभाषा तय करने सरीखा कोई भी नीतिगत कदम उठाए जाने की संभावना नहीं है. इस देरी की बदौलत भाजपा अपने सवर्ण आधार को परेशान किए बिना जनगणना के श्रेय का दावा कर पाएगी. यहां भी उसे दो फाड़ों के बीच तनी हुई रस्सी पर चलना होगा: ज्यादा धीमे चलो तो विपक्ष का आरोप झेलो; ज्यादा तेज चलो तो आंकड़ों से ओबीसी कोटा 50 फीसद की सीमा से ज्यादा बढ़ाने की जरूरत आन पड़ने पर तीखी प्रतिक्रिया का जोखिम उठाओ.
इस उलझन से बचने के लिए भाजपा बीच का रास्ता चुन सकती है. वह कुल कोटा बढ़ाए बिना आरक्षण के फायदे अति पिछड़ों को देने के लिए रोहिणी आयोग के उपवर्गीकरण ढांचे का इस्तेमाल कर सकती है. आयोग ने 2023 में अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें कहा गया कि 1 फीसद ओबीसी उपसमूहों ने आधे फायदे हड़प लिए थे. यह निष्कर्ष गैर-दबंग जातियों के बीच पहुंच बनाने की भाजपा की रणनीति से मेल खाता है.
जनगणना के बाद का दौर काफी डांवांडोल साबित हो सकता है, जैसा कि कर्नाटक के मामले में देखा गया. उसके जाति सर्वेक्षण ने लिंगायतों और वोक्कलिगाओं के दबदबे को उजागर किया और कुरुबाओं को कोटे में काफी बढ़ोतरी के साथ नई एमबीसी श्रेणी में रखने की सिफारिश की.
आगे का रास्ता पेचीदा है. पार्टी को अब जातिगत न्याय की मांग कर रहे अपने मंडल और कमंडल वाले वोटरों को एक साथ संभालना होगा. वह कितनी कामयाबी से संतुलन बिठा पाती है, इसी से आगे पार्टी की पहचान गढ़ी जाएगी. असल इम्तिहान लोगों की प्रतिक्रिया में है: क्या लोग इसे 'सबका साथ सबका विकास’ की दिशा में ईमानदार कदम के तौर पर देखेंगे या राजनैतिक अवसरवाद के तौर पर?