—अरुण पुरी
मेरा लंबे समय से मानना है कि भारत की आर्थिक प्रगति में सबसे बड़ी बाधा दमघोंटू नौकरशाही है जिसे भारतीय उद्यमियों और यहां तक कि विदेशी निवेशकों को झेलना पड़ता है. अब, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से शुरू किए गए व्यापार युद्ध ने भारत को वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी बनने की ज्यादा जरूरत बता दी है.
हमें अपने सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार, अमेरिका के लिए अपने बाजार खोलने को मजबूर किया जा रहा है. यह बदलाव वैश्विक व्यापार के मौजूदा तौर-तरीकों में भी उथल-पुथल मचाएगा क्योंकि दुनिया, खासतौर पर चीन, नए बाजारों की तलाश में है.
भारतीय कारोबारों के लिए असली चुनौती पूंजी, बुनियादी ढांचे या कौशल की कमी नहीं है. यह लंबे समय से चली आ रही नियामकीय चर्बी है जो भारतीय उद्यमशीलता का गला घोंटती है. टीमलीज सर्विसेज के एक अध्ययन में पाया गया कि उद्यम शुरू करने से लेकर उसे खत्म करने तक भारतीय उद्यमियों को 69,000 से ज्यादा अनुपालनों की भूलभुलैया से गुजरना पड़ता है जो 1,536 केंद्रीय और राज्य के कानूनों से संचालित होते हैं.
इसके अलावा 6,500 से ज्यादा फाइलिंग से भी जूझना पड़ता है. ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि सात अहम क्षेत्रों में जो नियम हैं, उनमें 26,134 कारावास की धाराएं छिपी हुई हैं. यह सिस्टम मनमानी ताकत और भ्रष्ट आचरण फलने-फूलने के लिए बनाया गया है. एक उद्योगपति ने इसे ''आर्थिक आतंकवाद'' तक बताया.
इनमें से कई नियम मूल रूप से अवैध कामों को रोकने और सार्वजनिक तथा पर्यावरण कल्याण की रक्षा के अच्छे इरादे से बनाए गए थे. लेकिन भारत में इलाज अक्सर पूरी बीमारी में बदल जाते हैं. श्रम कानूनों को लें, अकेले इस क्षेत्र में एक कारोबारी को 32,542 प्रावधानों का पालन करना होता है जो कुल क्षेत्र का 47 प्रतिशत हैं. इसके लिए 463 कानूनों के तहत 3,048 फाइलिंग आवश्यक होती हैं.
बिजली की अनुमति लेना भी जी का जंजाल है. भूमि राज्यों का विषय है, लेकिन संपत्ति हस्तांतरण समवर्ती सूची में है जहां केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं. पर्यावरण संबंधी मंजूरियां केंद्र और राज्य दोनों सरकारों से लेना जरूरी है.
प्रत्येक सेक्टर को जटिल नियामकीय झंझटों का सामना करना पड़ता है. एक ऑटोमोटिव कंपनी को चार चरणों—सेट अप, प्री-कमिशनिंग, पोस्ट-कमिशनिंग और पोस्ट-प्रोडक्शन—में करीब 80 एक बार की मंजूरियां लेना होता है. एक मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाने पर 173 केंद्रीय कानूनों, 313 राज्य कानूनों और छह नगरपालिका कानूनों के तहत 492 अनुपालनों से निबटना होता है. और राष्ट्रीय व्यंजन खिचड़ी की तरह, हर राज्य में इसके रूप जुदा-जुदा होते हैं.
महाराष्ट्र के एक उद्यमी को अल्कोहल-बेवरेजेज उद्योग में मैन्युफैक्चरिंग इकाई लगाने के लिए 99 अनुमतियों की आवश्यकता होती है, जिनमें से 35 को नियमित रूप से नवीनीकृत कराना जरूरी है.
कर्नाटक में 60 श्रम कानून हैं, जिन्हें हर महीने, तीन महीने, छह महीने और हर साल नवीनीकृत कराना होता है. इनमें से हरेक के लिए कागजों के पुलिंदे के साथ अधिकारियों के पास व्यक्तिगत रूप से जाने की आवश्यकता होती है. किसी भारतीय उद्यमी को कारोबार शुरू करने के लिए सभी जरूरी मंजूरियां जुटाने में औसतन एक साल से ज्यादा लगता है.
इसके विपरीत, भारत के सबसे कड़े प्रतिस्पर्धियों में से एक वियतनाम स्थानीय लोगों को एक महीने से भी कम समय में और विदेशियों को दो महीने के भीतर औद्योगिक लाइसेंस देता है. वह बिजली से लेकर प्रदूषण नियंत्रण तक हर चीज के लिए वास्तविक सिंगल-विंडो सिस्टम का इस्तेमाल करता है. भारत में हमारी तथाकथित सिंगल विंडो अक्सर कई दरवाजों के पीछे छिपी होती है.
अनुपालन के इस बोझ को तोड़ने के लिए इसे एक राष्ट्रीय आर्थिक संकट माना जाना चाहिए. क्यों? टीमलीज सर्विसेज के प्रेसिडेंट और सह-संस्थापक मनीष सभरवाल आंखें खोल देने वाले कुछ आंकड़े साझा करते हैं. भारत के 6.3 करोड़ उद्यमों में से 1.2 करोड़ के पास कोई कार्यालय नहीं है और वे घरों से ही काम करते हैं. भारत में केवल 29,000 कंपनियों की चुकता पूंजी 10 करोड़ रुपए से ज्यादा है. उनका कहना है कि इसका कारण अनुपालन का भारी बोझ है.
यह बोझ लागत बढ़ाता है, नवाचार का गला घोंटता है और मुनाफा घटाता है, खासकर सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) का. 100 करोड़ रुपए तक के टर्नओवर वाले कारोबारों के लिए अनुपालन लागत प्रति वर्ष 11-16 लाख रुपए तक हो सकती है. फिनटेक फर्मों के लिए यह कहीं ज्यादा है—छोटी फर्मों के लिए 96 लाख रुपए से 1.17 करोड़ रुपए और बड़ी फर्मों के लिए 2.5-3.2 करोड़ रुपए.
इसलिए, ताज्जुब की बात नहीं है कि उद्यम पोर्टल पर पंजीकृत 35,567 एमएसएमई वित्त वर्ष 2025 (फरवरी तक) में बंद हो गए, कई उद्यमों ने नियामक की बाधाओं को इसका कारण बताया. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी घट गया है और यह वित्त वर्ष 2022 में 84.8 अरब डॉलर से घटकर वित्त वर्ष 2024 में 70.95 अरब डॉलर रह गया.
शुक्र है कि मोदी सरकार दुनिया में हो रहे इन बदलावों को लेकर चौकस है. पहला संकेत ट्रंप के व्हाइट हाउस पहुंचने के सिर्फ 11 दिन बाद मिला जब आर्थिक समीक्षा ने जमीन, श्रम और पूंजी क्षेत्र में नियमन कम करने को राष्ट्रीय प्राथमिकता के रूप में रखा. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस संकेत को समझते हुए बजट में सभी गैर-वित्तीय क्षेत्र के नियमों, सर्टिफिकेशन और अनुमतियों की समीक्षा के लिए समिति गठित की.
एक विनियमन आयोग का भी प्रस्ताव रखा गया. इस पर व्यापक सहमति है—अनुपालन का बोझ खत्म होना ही चाहिए. प्रबंध संपादक एम.जी. अरुण और सीनियर एसोसिएट एडिटर सोनल खेत्रपाल ने राज्यों के हमारे ब्यूरो के साथ कवर स्टोरी में इस बात को खंगाला है कि अनुपालन की मुसीबत कैसे समाप्त की जाए. एक बात स्पष्ट है—हम शासन के खिलाफ नहीं हैं. नियमन जरूरी हैं. इससे जनता का विश्वास सुनिश्चित होता है और अनैतिक व्यवहार थमता है. लेकिन जरूरत से ज्यादा नियमन से उद्यमशील भारतीयों का दम घुटता है. इसमें परिवर्तन जरूरी है.
हमें ऐसी व्यवस्था की जरूरत है जो कुशल, तेज और पूर्वानुमान समर्थ हो. नियामकीय चर्बी ठीक करने के लिए सभरवाल की सीधी-सी सलाह है—तर्कसंगत बनाएं, अपराधमुक्त करें और डिजिटल बनाएं. यह शुरुआत करने का अच्छा मौका है. और गंवाने के लिए वक्त नहीं है.
— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).