
जब नजर पड़े डबल-पैटी चिकन बर्गर पर तो मुंह में पानी आ ही जाता है. यह महज संयोग नहीं है. हमारा शरीर चीनी और नमक की तलाश करता रहता है, जो उस आदिम अतीत की वजह से है जब आदमी शिकार करके अपनी भूख मिटाता था. तब ऐसे खाद्य-पदार्थ दुर्लभ थे लेकिन जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं.
एचएफएसएस या अत्यधिक वसा, नमक और शक्कर वाले खाद्य पदार्थ या कहिए, जंक फूड कारखाने में बने होते हैं, अत्यधिक ऊर्जा देने वाले होते हैं और उनमें प्रीजर्वेटिव, शक्कर और एमल्सिफायर होते हैं, जो आमतौर पर घर की रसोई में नहीं पाए जाते. ये आम तौर पर चॉकलेट, मिठाइयों, नमकीन स्नैक्स, पेय पदार्थ, रेडी-टू-कुक और रेडी-टू-ईट खाद्य पदार्थ, इंस्टैंट नूडल्स और आइसक्रीम के रूप में पेश किए जाते हैं.
ये अब आसानी से उपलब्ध हैं, डिलिवरी ऐप के जरिए फौरन पहुंच जाते हैं. ये अब दैनिक आदत और खतरनाक लत का रूप लेते जा रहे हैं. इस कदर कि सुप्रीम कोर्ट ने 9 अप्रैल को एक जनहित याचिका पर सुनवाई में केंद्र को पैकेटबंद उत्पादों पर खाद्य लेबलिंग मानदंडों में सुधार के लिए आखिरी तीन महीने का समय दिया. इसका मकसद खाद्य पदार्थों के बारे में जन जागरूकता पैदा करना और सोच-समझकर भोज्य पदार्थ चुनने को बढ़ावा देना है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और भारतीय अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (आइसीआरआइईआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य और पेय कारोबार 2011 से 2021 तक 13.37 फीसद की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढ़ा है. उसकी खुदरा बिक्री 2006 में 0.9 अरब डॉलर (4,077 करोड़ रुपए) से बढ़कर 2019 में 37.9 अरब डॉलर (2.67 लाख करोड़ रुपए) से अधिक हो गई.
इसी तरह, वैश्विक खाद्य नीति रिपोर्ट 2024 के मुताबिक, घरेलू खाद्य बजट में पैकेटबंद खाद्य पदार्थों की हिस्सेदारी 2015 में 6.5 फीसद से दोगुनी बढ़कर 2019 में 12 फीसद हो गई, जबकि बाहर भोजन करने पर घरेलू खर्च 32 फीसद बढ़ गया. यह 2015 में 61,900 करोड़ रुपए से बढ़कर 2019 में 82,000 करोड़ रुपए हो गया (ग्लोबल फूड पॉलिसी रिपोर्ट, 2024).
पैकेटबंद या एचएफएसएस खाद्य पदार्थों की बढ़ती खपत का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ता है. बीएमजे जर्नल में प्रकाशित 2024 के एक शोधपत्र में कई देशों के लगभग 99 लाख लोगों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों का सेवन 32 नुक्सानदेह स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकता है.
इनमें कैंसर, मोटापा, हाइपरटेंशन (उच्च रक्तचाप), टाइप 2 डायबिटीज, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं जैसे अवसाद और नींद संबंधी विकार, हृदय रोग और क्रोनिक किडनी रोग (देखें: खामोश खतरा), जिनसे असमय मृत्यु हो सकती है. यह वैश्विक साक्ष्य है, लेकिन जून 2024 में प्लोस वन जर्नल में छपे शोध में कहा गया कि 1995 के बाद से भारत में जीवनशैली संबंधी बीमारियां तीन गुना बढ़ गई हैं, जो संचारी रोगों के मुकाबले बहुत तेजी से बढ़ रही हैं.
सो, कोई आश्चर्य नहीं कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से 31 राज्यों में किए गए और जुलाई 2023 में द लैंसेट में छपे अध्ययन में पाया गया कि देश के 10.1 करोड़ लोग या 11.4 फीसद आबादी मधुमेह से ग्रस्त है. इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि 15.3 फीसद (13.6 करोड़ लोग) प्रीडायबिटीज से पीड़ित हैं, 28.6 फीसद मोटापे से पीड़ित हैं और 35.5 फीसद को उच्च रक्तचाप है. ये सभी जंक फूड की बढ़ती खपत से जुड़े हैं.
चेन्नै स्थित डॉ. मोहन डायबिटीज स्पेशिएलिटी सेंटर की प्रबंध निदेशक तथा आइसीएमआर शोध की प्रमुख लेखिका डॉ. आर.एम. अंजना कहती हैं, ''जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों में खतरनाक बढ़ोतरी काफी हद तक खानपान की खराब आदतों की वजह से है.'' उनके मुताबिक, सबसे गंभीर मामला बच्चों का है. वे कहती हैं, ''ज्यादा कैलोरी मगर कमतर पोषक तत्वों वाले अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों की बढ़ती खपत मोटापे की महामारी को जन्म दे रही है, जो अन्य बीमारियों के द्वार खोलता है.'' वयस्कों में जीवनशैली संबंधी बीमारियों के अन्य दो कारण हैं. शरीरिक गतिविधि का न होना और जीवन के तनाव, लेकिन बच्चों और किशोरों में अस्वास्थ्यकर आहार इसका प्रमुख कारण हैं, क्योंकि उनका जंक फूड का सेवन वयस्कों की तुलना में कम से कम तीन गुना अधिक है.
आर्थिक नतीजे भी डरावने हैं. आइसीएमआर का अनुमान है कि देश में कुल रोग बोझ का 56.4 फीसद जंक फूड की बढ़ती खपत से जुड़ा है. फिर, अस्पताल में भर्ती होने का खर्च और बीमारी के कारण उत्पादकता में कमी का बोझ भी बढ़ रहा है, जिसमें स्कूल और काम से छुट्टी लेना शामिल है. फिर भी नियम-कायदे उद्योग के मुनाफे के मुकाबले सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं देते.
अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आइएफपीआरआइ) की 2024 वैश्विक खाद्य नीति रिपोर्ट में पाया गया कि कम से कम 38 फीसद भारतीय अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों का सेवन करते हैं और 22 फीसद कोई फल या सब्जी नहीं खाते. पारंपरिक आहार से इस क्रमिक बदलाव के पीछे कई कारण हैं. आइएफपीआरआइ की खाद्य और पोषण नीति की वरिष्ठ निदेशक पूर्णिमा मेनन बताती हैं, ''खान-पान की पसंद विविध होती हैं, जिसकी कई वजहें हैं. परिवार में महिलाएं मुख्य रूप से भोजन परोसती हैं, खासकर उनकी और परिवार की सक्रियता, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सुविधा, पहुंच, सामर्थ्य और साथ ही बाजार में उपलब्ध खाद्य विकल्प हैं.''
प्रसिद्ध पोषण विशेषज्ञ तथा आइसीएमआर के राष्ट्रीय पोषण संस्थान की निदेशक डॉ. हेमलता आर. का कहना है कि देश के हर बाजार-नुक्कड़ में उपलब्ध जंक फूड की स्वादिष्ट प्रकृति दिमाग की एक खास प्रणाली को सक्रिय कर देती है और ज्यादा मात्रा में खाने को मन ललचाता है. वे कहती हैं, ''असल में, यह गरीब परिवारों के लिए बड़ी चिंता है, जिनके पास अक्सर सही जानकारी नहीं होती और वे अपने सीमित संसाधनों को पौष्टिक विकल्पों के बजाए अत्यधिक प्रोसेस्ड भोजन पर खर्च कर देते हैं.''
दिमाग के साथ छल
निर्माता जंक फूड को अत्यधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए विज्ञान का लाभ उठाते हैं. यह इस प्रकार होता है. क्या आपको जो वैनिला आइसक्रीम पसंद है, उसमें प्राकृतिक वैनिला है? फिर से सोचें. लेकिन असलियत में उसे फ्लेवर निर्माताओं की प्रयोगशाला में तैयार किए गए रसायनों से बनाया जाता है. कम्प्यूटेशनल गैस्ट्रोनॉमी पर शोध करने वाले आइआइआइटी दिल्ली में प्रोफेसर गणेश बागलर कहते हैं, ''आज, पैकेज्ड खाद्य पदार्थों में फ्लेवर अणुओं का उपयोग करने का विज्ञान पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ा है. प्राकृतिक उत्पादों की तुलना में बहुत सस्ते कृत्रिम फ्लेवर दिमाग में भ्रम पैदा करते हैं कि कुछ पौष्टिक खा रहे हैं, जैसे कि असली आम के साथ मैंगो ड्रिंक, जबकि वास्तव में, यह कृत्रिम आम के स्वाद वाला सोडा मात्र है.''
इसलिए जंक फूड की लत सिर्फ आदत या पसंद की बात नहीं है, इससे दिमाग और शरीर में जटिल जैव रासायनिक प्रतिक्रियाएं शामिल हैं. चीनी, वसा और मैदा की अधिक मात्रा इसकी लत को और बढ़ा देती है. दिल्ली स्थित सर गंगा राम अस्पताल में इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर गैस्ट्रोएंटरोलॉजी के वाइस-चेयरपर्सन डॉ. पीयूष रंजन कहते हैं कि ये खाद्य पदार्थ नशे की लत जैसे हैं क्योंकि इनके अत्यधिक सेवन से आंत के माइक्रोबायोम में बदलाव होता है, जिससे शरीर में कई हॉर्मोन प्रभावित होते हैं.
मसलन, चीनी या फ्रुक्टोज की अत्यधिक मात्रा रक्त शर्करा के स्तर को बढ़ाती है, जिससे डोपामाइन नामक मजा देने वाले न्यूरोट्रांसमीटर का स्राव होता है. जब डोपामाइन मस्तिष्क में भर जाता है, तो यह आनंद की भावना पैदा करता है. समय के साथ, यह सुखद अनुभूति एक आदत और अंतत: एक लत में बदल जाती है. इसलिए सुखद अनुभव के लिए अधिक जंक फूड की चाहत बढ़ती जाती है. डॉ. रंजन बताते हैं कि ये शरीर और दिमाग में उसी तरह काम करते हैं जैसे निकोटीन या ड्रग्स जैसे नशीले पदार्थ की लत.
इसी तरह, जंक फूड का सेवन भूख को नियंत्रित करने वाले हॉर्मोन में बाधा डालता है. भोजन के बाद, पेट में ग्रेलिन (जो भूख का संकेत देता है) और लेप्टिन (जो पेट भरा होने का संकेत देता है) जैसे हॉर्मोन बनते हैं. अत्यधिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों में आर्टिफिशियल एडिटिव, उच्च वसा और चीनी होती है, जो लेप्टिन का स्राव रोक सकते हैं, जिससे शरीर के लिए यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि कब पेट भरा हुआ है. वे कहते हैं कि ग्रेलिन का स्राव अधिक होता है, इसलिए व्यक्ति अधिक खा लेता है, जिससे एक दुष्चक्र बनता है जो मोटापे और अन्य हॉर्मोनल असंतुलन की ओर ले जाता है.
आइएफपीआरआइ की मेनन के मुताबिक, दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत यह है कि फूड इंडस्ट्री, और खासकर फूड की मार्केटिंग करने वाले वह बात समझ गए हैं जो सार्वजनिक स्वास्थ्य के अनुसंधान को समझ नहीं आया है. अलग-अलग लोग को क्या खाना पसंद है. वे अपनी जानकारी का फायदा उठाकर अपने अनहेल्दी फूड्स को बढ़ावा देते हैं, उनकी मार्केटिंग करते और बेचते हैं. इसकी सबसे बढिय़ा मिसाल इंस्टेंट नूडल्स हैं. इसे माताओं के लिए सहज, सुलभ और शाम को झटपट तैयार किए जाने वाले स्नैक के रूप में पेश किया गया था. इस ब्रांड का संदेश उन गृहिणियों के मन को भा गया जो अपने बच्चों के लिए आसानी से चंद मिनटों में कुछ बनाना चाहती थीं.
क्वालिटी का संकट
सोशल मीडिया पर फूडफार्मर के नाम से चर्चित हेल्थ इन्फ्लुएंसर रेवंत हिमतसिंगका के मुताबिक, समस्या यह है कि भारतीय न केवल ज्यादा जंक फूड खा रहे हैं बल्कि वे सबसे खराब किस्म को भी खा रहे हैं. 2019 में यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफर्ड के ओबेसिटी रिव्यूज में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि भारत में उपलब्ध पैकेट वाले खाद्य और पेय पदार्थ 12 देशों (अमेरिका और चीन समेत) में सबसे कम सेहतमंद हैं, जिनमें वसा, चीनी और नमक का स्तर ज्यादा है.
असल में वैश्विक गैर-लाभकारी संस्था एक्सेस टू न्यूट्रिशन इनिशिएटिव (एटनी) ने नेस्ले, पेप्सिको और यूनिलीवर जैसी बड़ी एफएमसीजी कंपनियों पर आरोप लगाया है कि वे अमीर देशों में बेचे जा रहे उत्पादों की तुलना में भारत में कम सेहतमंद उत्पाद बेच रही हैं. उसकी रिपोर्ट में 20 कंपनियों के ऐसे 1,901 उत्पादों की जांच की गई जो भारत में पैकेट वाले फूड और बेवरेज की कुल बिक्री (वित्त वर्ष 2021) का 36 फीसद हिस्सा हैं. लेकिन भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआइ) की कार्यकारी निदेशक इनोशी शर्मा इन निष्कर्षों का प्रतिकार करती हैं. उनकी दलील है कि ''एटनी की रिपोर्ट पूरी तरह गलत है. कंपनियां हमारे नियमों का उल्लंघन नहीं कर रही हैं. जैसे, अगर नेस्ले भारत में बेबी फूड में चीनी मिला रही है तो यह हमारे यहां के मानदंडों के अनुसार है.''
एटनी की रिपोर्ट में उत्पादों के नाम नहीं हैं. लेकिन हिमतसिंगका ने उनमें से कुछ को पहचाना है. मसलन, ऑस्ट्रेलिया में बिकने वाले नेस्ले की किटकैट में कम से कम 22 फीसद कोको होता है जबकि भारत में इसमें महज 4.4 फीसद होता है. इसी तरह पेप्सिको के लेज आलू चिप्स का क्लासिक सॉल्टेड वैरिएंट भारत में सस्ते पाम ऑयल से बनाया जाता है जिसमें उच्च संतृप्त वसा होती है जबकि इसे यूरोप और अमेरिका में सूरजमुखी के तेल से बनाया जाता है. नेस्ले इंडिया के प्रवक्ता का कहना है कि पोषण, स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती पर उनका हर जगह एक जैसा सिद्धांत लागू है. ''हमारे सभी उत्पाद पोषण के लिहाज से संतुलित हैं और संबंधित अधिकारियों के दिशा-निर्देशों के अनुरूप हैं. उत्पादों के निर्माण में अंतर स्वाद की संवेदनशीलता, मौसम की स्थितियों और कच्चे माल की उपलब्धता जैसी बातों की वजह से हो सकता है.''
कंपनी का दावा है कि उसने पिछले पांच साल में सेरेलैक में मिलाई जा रही चीनी को 30 फीसद तक कम किया है. लेज इंडिया ने कहा है कि वह अपने उत्पाद में पाम ऑयल कम करने के लिए परीक्षण कर रही है, लेकिन पेप्सिको ने इस स्टोरी के लिए कोई टिप्पणी नहीं की. कन्फेक्शनरी की प्रमुख कंपनी मार्स ने भी इस रिपोर्ट पर टिप्पणी से इनकार कर दिया. शर्मा कहती हैं, ''अभी तक, एफएसएसएआइ के अनुसार, संतृप्त वसा, चीनी और नमक (एचएफएसएस) वाले खाद्य पदार्थों की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है; बहस चल रही है. यही वजह है कि यह कहना मुश्किल हो जाता है कि एफएसएसएआइ ने संतृप्त वसा, चीनी और नमक वाले खाद्य पदार्थों पर क्या काम किया है.''
कीमत का पहलू
हर देश में कंपनियों के अलग-अलग उत्पाद क्यों हैं? प्रबंधन सलाहकार फर्म टेक्नोपैक एडवाइजर्स के संस्थापक अध्यक्ष अरविंद सिंघल कहते हैं कि इसका कारण विशुद्ध रूप से अर्थशास्त्र है. उनका कहना है कि कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होता है कि उत्पाद बाजार में बिकें और उपभोक्ता उन्हें उसी कीमत पर स्वीकार करें जो रखी गई है. हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड के एक पूर्व क्षेत्रीय निदेशक, जो अपना नाम नहीं बताते, कहते हैं, ''किसी उत्पाद को लॉन्च करते समय कीमत एक अहम कारक होती है क्योंकि अगर आप बाजार से हटकर कीमत तय करते हैं तो इसका मतलब होगा कि आप बाजार में काम करने की अपनी क्षमता को सीमित कर रहे हैं.''
वे बताते हैं कि उत्पाद की सामग्री हमेशा तीन कारकों से जुड़ी होती है. दाम, स्वाद और क्वालिटी. वे यह भी कहते हैं कि उत्पाद ऐसा होना चाहिए कि फर्म ने उस उत्पाद श्रेणी से टर्नओवर का जो खाका बनाया है, उसमें वह मददगार हो. हालांकि, जरूरी नहीं कि एफएमसीजी कंपनियां जरूरत से ज्यादा मुनाफा कमा ही रही हों. स्थापित कंपनियों का आम तौर पर 50 से 60 फीसद का मार्जिन होता है, जिसका अर्थ है कि उत्पादन लागत करीब 40 फीसद होती है. यह वैश्विक उद्योग में एक मानक है. वे कहते हैं, ''आमतौर पर एफएमसीजी कंपनियां कम मार्जिन पर काम करती हैं और बड़े पैमाने पर ज्यादा लोगों की खरीद वाले उत्पादों पर ध्यान देती हैं क्योंकि उपभोक्ता कीमत को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील होते हैं, इसलिए वे बिक्री की मात्रा पर निर्भर करती हैं.''
तो आगे का रास्ता क्या है? पहली बात, सरकार खाद्य पदार्थों के उत्पादन का नियमन कर सकती है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि बाजार में स्वस्थ विकल्प उपलब्ध हों. मसलन, नमक और चीनी भारत में सबसे सस्ते कच्चे माल में से हैं. आइसीआरआइईआर की प्रोफेसर अर्पिता मुखर्जी कहती हैं, ''हमारे देश में नमक समुद्र से आता है और चीनी सब्सिडी से. ऐसे में सरकार को सब्सिडी और कर जैसे प्रोत्साहनों को पोषण से जोड़ने की जरूरत है जिससे कि बाजार स्वस्थ उत्पादों के उत्पादन की दिशा में बढ़ सके.''
लेकिन ऊंचे करों के कारण मैन्युफैक्चरर्स के पास स्वास्थ्यवर्धक वैरिएंट का कोई प्रोत्साहन नहीं है. मसलन, कार्बोनेटेड पेय पदार्थ चाहे पारंपरिक फ्लेवर वाले पेय हों या उनमें कम चीनी हो, फल-आधारित वैरिएंट हों पर मानक 28 फीसद जीएसटी और 12 फीसद क्षतिपूर्ति उपकर लगता है जो कुल मिलाकर 40 फीसद हो जाता है. शर्मा कहती हैं, ''बतौर खाद्य नियामक हम सुरक्षित और स्वच्छ खाद्य पदार्थों के उत्पादन और मैन्युफैक्चरिंग के लिए नियम और मानक तय करते हैं.'' वे जोर देकर कहती हैं कि बिक्री पर रोक लगाना या खाद्य पसंद पर सलाह जारी करना एफएसएसएआइ के अधिकार क्षेत्र में नहीं है.
गुमराह करने वाले लेबल
किसी भी वास्तविक समाधान में यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि खाद्य पदार्थों की मार्केटिंग और बिक्री कैसे की जाती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की साफ-साफ सिफारिश है कि फ्रंट-ऑफ-पैक न्यूट्रिशन लेबलिंग (एफओपीएनएल) यानी पैकेट के फ्रंट में पोषण से जुड़े मानदंड होने चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो कि हर कोई पोषण से जुड़ी जानकारी समझे और अपने उपभोग के बारे में जानकारी वाला विकल्प चुन सके. विडंबना यह है कि भारत 2014 से ही फ्रंट-ऑफ-पैक न्यूट्रिशन लेबलिंग मानदंडों का मसौदा तैयार करने में जुटा है.
पोषण पर थिंक टैंक नेशनल एडवोकेसी इन पब्लिक इंटरेस्ट (एनएपीआइ) के संयोजक डॉ. अरुण गुप्ता कहते हैं, ''कई सिफारिशें की गई हैं. लेकिन उद्योग के विरोध के कारण एफएसएसएआइ ने उन्हें कमजोर कर दिया है और इस कारण गतिरोध पैदा हो गया है. सितंबर 2022 में ही फ्रंट-ऑफ-पैक न्यूट्रिशन लेबलिंग पर एक मसौदा जारी किया गया.
इसमें भारतीय पोषण रेटिंग (आइएनआर) मॉडल या हेल्थ स्टार रेटिंग का प्रस्ताव किया गया है यानी पैक के सामने लेबलिंग प्रणाली जो भोजन के समग्र पोषण प्रोफाइल को 1/2 स्टार से लेकर 5 स्टार तक की रेटिंग देती है. लेकिन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की दलील है कि यह प्रणाली उपभोक्ताओं की बजाए उद्योग को अधिक तवज्जो देती है क्योंकि यह अधिक नमक या चीनी जैसे हानिकारक तत्वों के बारे में चेतावनी नहीं देती.
इस मसौदे के खिलाफ 14,000 से ज्यादा सार्वजनिक टिप्पणियां आई हैं. उपभोक्ता संरक्षण संघ के कार्यकारी अध्यक्ष जॉर्ज चेरियन का सुझाव है कि चिली में इस्तेमाल चेतावनी लेबल की तरह भारत में भी खाद्य पैकेटों पर अतिरिक्त कैलोरी, चीनी और वसा को बड़े काले अष्टकोण में प्रदर्शित करना जरूरी है क्योंकि भारत में साक्षरता का स्तर कम है और भाषा संबंधी बाधाएं भी बहुत हैं. इसलिए, चेतावनी के लेबल प्रतीकों या इमोजी के रूप में होने चाहिए. जैसे मांसाहारी और शाकाहारी खाद्य पदार्थों के लिए क्रमश: लाल और हरे रंग के डॉट होते हैं.
एनएपीआइ के डॉ. गुप्ता कहते हैं कि भारत में पोषण संबंधी जानकारी के साथ-साथ उसमें इस्तेमाल सामग्री सूची भी अनिवार्य है. लेकिन यह बेकार है क्योंकि उपभोक्ता तकनीकी जानकारी नहीं समझते. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला ने फूड रैपर पर पोषण से जुड़ी जानकारी में पारदर्शिता की कमी का उल्लेख किया. ''आप सभी के नाती-पोते हैं? याचिका पर आदेश आने दीजिए. आपको पता चल जाएगा कि कुरकुरे और मैगी क्या हैं और उनके रैपर कैसे होने चाहिए. पैकेट पर कोई जानकारी नहीं होती है.''
गुप्ता का तर्क है कि अध्ययनों के अनुसार उपभोक्ता खाद्य पदार्थों का चुनाव करने में महज 10 सेकंड लगाते हैं; इसलिए वर्तमान लेबल प्रणाली सार्वजनिक स्वास्थ्य हितों की रक्षा नहीं करती. बॉर्नविटा का मामला ही लीजिए. इसमें चीनी का ज्यादा हिस्सा होने के बावजूद इसे दशकों तक 'स्वास्थ्यवर्धक पेय' के रूप में बेचा जाता रहा. कई देशों, विशेष रूप से चिली, मेक्सिको और ब्राजील जैसे लैटिन अमेरिकी देशों ने फ्रंट-ऑफ-पैक न्यूट्रिशन लेबलिंग की नीतियों को लागू किया है.
पीएलओएस मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन में 2,000 परिवारों की खरीदारी की आदतों को ट्रैक किया गया. इस अध्ययन से पता चला कि चिली ने 2016 में खाद्य लेबलिंग और विज्ञापन कानून लागू किया तो इसके 18 महीने बाद चीनी-मिठास वाले पेय पदार्थों की खपत में लगभग 25 फीसद की गिरावट आई. चिली के इस कानून के तहत सुबह 6 बजे से रात 10 बजे के बीच अस्वास्थ्यकर उत्पादों के विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाना, पैकेट के सामने चेतावनी वाले बड़े लेबल लगाना और स्कूलों में जंक फूड पर रोक लगाना शामिल था. 2014 में देश ने चीनी वाले पेय पदार्थों पर टैक्स 13 फीसद से बढ़ाकर 18 फीसद कर दिया था. नतीजतन, कंपनियों ने पैकेजिंग पर चेतावनी लेबल को दरकिनार करने के लिए अपने उत्पादों को नए सिरे से तैयार किया. तब से पेरू, उरुग्वे और इज्राएल ने चिली की तरह फ्रंट-ऑफ-पैकेज लेबल लागू कर दिया है.

मार्केटिंग का धोखा
उपभोक्ताओं को जंक फूड के विज्ञापनों के बढ़ते हमले का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें इन्हें कूल और आकांक्षी बताया जाता है. इसे मुफ्त की पेशकशों, भावनात्मक अपीलों, सेहत के झूठे दावों या बॉलीवुड अभिनेताओं और खेल सितारों के प्रचार के जरिए किया जाता है ('इतना स्वादिष्ट कि आप उंगलियां चाटेंगे और एक पर ही नहीं रुकेंगे' या 'शर्त है कि आप सिर्फ एक ही नहीं खाएंगे'). अध्ययनों से पता चला है कि मार्केटिंग की 'परेशान करने वाली ताकत' पसंद, प्राथमिकता और खरीद मांग को कैसे प्रभावित करती है.
हिमतसिंगका ने मुंबई के एक स्कूल के अपने दौरे के एक उदाहरण के बारे में बताया जो 'कैंटीन सुधारेगा इंडिया' अभियान के तहत था. एक छात्र उनके पास आया और गर्व से उन्हें बताया कि उसने कोला पेय पीना छोड़ दिया है. लेकिन इसके बजाए स्प्राइट और लिम्का पीना शुरू कर दिया है क्योंकि ''वो क्लियर है.'' दरअसल वह स्प्राइट की मार्केटिंग टैगलाइन 'क्लियर है,' को उसके पोषण स्तर से जोड़ रहा था. ऐसे कई उदाहरण हैं कि कैसे विज्ञापनों के माध्यम से गलत प्रचार किया जा रहा है.
2024 की एनएपीआइ की रिपोर्ट 'द जंक पुश', जिसमें प्री-पैकेज्ड खाद्य पदार्थों के 43 विज्ञापनों का विश्लेषण किया गया था, में पाया गया कि हरेक उत्पाद को जरूरत से ज्यादा प्रोसेस किया गया था. किसी भी विज्ञापन में चिंताजनक पोषक तत्वों चीनी, नमक और संतृप्त वसा के बारे में जानकारी नहीं दी गई थी. इनमें से 25 की मार्केटिंग नामी-गिरामी हस्तियों का उपयोग करते हुए की गई, 12 में बच्चों को दिखाया गया और आठ में स्वास्थ्य संबंधी दावे किए गए.
कई देशों ने इस तरह की मार्केटिंग को कम और प्रतिबंधित करना शुरू कर दिया है. दिसंबर 2024 में यूके ने सुबह 5.30 बजे से रात 9 बजे के बीच टीवी और ऑनलाइन पर जंक फूड के विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून पास किया जो अक्तूबर 2025 में लागू होगा. ऐसा कोई कारण नहीं है कि मेक्सिको और चिली की तरह भारत चेतावनी लेबल न लगा सके या यूके की तरह जंक फूड के विज्ञापनों पर प्रतिबंध न लगा सके.
सरकार ईट राइट इंडिया और फिट इंडिया मूवमेंट जैसी पहलकदमियों को लागू करके सेहतमंद खाद्य पदार्थों और सक्रिय जीवनशैली को बढ़ावा देने के लिए ठोस प्रयास कर रही है. लेकिन एफएसएसएआइ को इस मुद्दे को समग्र रूप से देखने की जरूरत है. परिवारों के उपभोग के तौर-तरीकों से लेकर बाजार में क्या आ रहा है, इसे कैसे पैक किया जाता है, लेबल किया जाता है, मार्केट किया और बेचा जाता है.
पैकेज्ड फूड यहां बना रहेगा क्योंकि उपभोक्ता अपनी व्यस्त जीवनशैली के कारण सुविधा के लिए तेजी से इसका विकल्प चुन रहे हैं. लेकिन ऐसा कोई कारण नहीं है कि खाद्य नियामक एफएसएसएआइ देश के 1.5 अरब नागरिकों के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए कड़े मानदंड क्यों नहीं लागू कर सकता.
जंक का जोखिम
जिन्हें एचएफएसएस (हाइ इन फैट, सॉल्ट ऐंड शुगर) यानी वसा, नमक और चीनी की अधिक मात्रा वाले खाद्य पदार्थों के रूप में वर्गीकृत किया गया है, ऐसे जंक फूड हमारे जीवन का हिस्सा बन गए हैं. हालांकि इनका असर बेहद हानिकारक और चिंताजनक है. पिछले चार साल में सुविधा की आदत ने हमें प्रिजर्वेटिव और शुगर से भरे खाने का आदी बना दिया है. लेकिन, सेहत के लिए खतरनाक है.