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बिहार की किन 20 सीटों पर सबसे ज्यादा नाम हटे; क्या SIR का चुनाव पर असर होगा?

बिहार की मतदाता सूचियों से 65.6 लाख नाम हटा दिए गए हैं, जो करीब 8.3 फीसद की भारी कमी को दर्शाता है

Special Report: Bihar Elections
24 जुलाई को राबड़ी देवी और अन्य MLA SIR के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए

पटना में अगस्त की उमस भरी सुबह सदर प्रखंड कार्यालय में ऐसा सन्नाटा पसरा है, मानो जानबूझकर यह माहौल बनाया गया हो. तीन अधिकारी डेस्क पर बैठे हैं, उनके सामने लैपटॉप में मसौदा मतदाता सूची खुली है, दीवारों पर भी छपी हुई सूचियां चिपकी हैं...और कोई यहां झांकने तक नहीं आ रहा. एक भी मतदाता अपनी स्थिति जानने या शिकायत दर्ज कराने नहीं आया है.

बुरी तरह ऊब चुके अधिकारियों में से एक धर्मेंद्र कुमार बुदबुदाते हुए बोले, ''हम इंतजार करेंगे.’’ आखिरकार, पांच दिन बाद उनके दफ्तर में कुछ हलचल दिखी, जब दो लोग फॉर्म-6 (नए मतदाता के तौर पर पंजीकरण का प्रपत्र) भरने में सहायता लेने के लिए अंदर पहुंचे. बिहार में मतदाता सूचियों को लेकर जारी सियासी घमासान के बीच यह सन्नाटा एक अजब विरोधाभास उत्पन्न करता है.

राज्य की मतदाता सूचियों से 65.6 लाख नाम हटा दिए गए हैं, जो करीब 8.3 फीसद की भारी कमी को दर्शाता है. इस संशोधन के कारण मतदाताओं की संख्या जनवरी 2025 के 7.89 करोड़ से घटकर महज सात महीने बाद ही 7.24 करोड़ रह गई है.

इतनी बड़ी संख्या में नाम हटना भारत के चुनाव आयोग (ईसीआइ) की विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) प्रक्रिया का नतीजा है, जो एक माह तक चली. अभियान के दौरान 90,712 मतदान केंद्रों पर लगभग 84,000 बूथ-स्तरीय अधिकारियों को तैनात किया गया, और 12 राजनैतिक दलों के 1,60,000 बूथ-स्तरीय एजेंटों, 3,000 से ज्यादा निर्वाचक पंजीकरण अधिकारियों (ईआरओ) और हजारों स्वयंसेवकों का भी सहयोग लिया गया.

नाम हटाने संबंधी ब्योरा एक ऐसी पद्धति को सामने लाता है, जो सामान्य तौर पर प्रशासनिक तर्कों के अनुरूप लगती है. 65.6 लाख में से 22.3 लाख नाम ऐसे बताए गए हैं, जिन मतदाताओं की मृत्यु हो चुकी है, 36.3 लाख मतदाता स्थायी रूप से दूसरी जगहों पर जाकर बस गए हैं, या अनुपस्थित/अज्ञात के तौर पर वर्गीकृत हैं. और, 7,00,000 नाम ऐसे हैं जिन्हें एक से ज्यादा जगहों पर पंजीकृत मतदाता बताया गया है.

सबसे अहम बात यह है कि केवल 1,20,000 मतदाताओं यानी कुल हटाए गए नामों में मात्र 1.8 फीसद को 25 जुलाई की समयसीमा तक गणना प्रपत्र जमा न करने के कारण हटाया गया है. यह आखिरी आंकड़ा नौकरशाही का इस्तेमाल कर बड़े पैमाने पर लोगों को मताधिकार से वंचित करने के विपक्ष के दावे के एकदम उलट नजर आता है. इन 1,20,000 लोगों के पास उचित दस्तावेजों के साथ अपना नाम शामिल कराने के लिए आवेदन करने का अधिकार भी है, ताकि उन्हें स्थायी रूप से मतदाता सूची से बाहर न किया जा सके.

जनवरी 2024 में प्रकाशित संशोधित मतदाता सूची में 16 लाख नाम हटाए गए थे और साथ ही 28 लाख नए मतदाता जोड़े भी गए थे. मौजूदा विशेष गहन पुनरीक्षण की तुलना में यह प्रक्रिया अब बेहद मामूली लगती है. एसआइआर में नाम हटाने के पैमाने ने इसे राजनैतिक विवाद का विषय बना दिया है. पिछले पुनरीक्षण के मुकाबले चार गुना नाम इसमें हटाए गए हैं.

एसआइआर का वास्तविक प्रभाव तो सामने आएगा जब उन नामों का आंकड़ा आएगा जिन्हें अभी हटाया जा सकता है. चुनाव आयोग तो फिलहाल इस पर खुशी जता रहा है कि मसौदा सूची में शामिल 7.24 करोड़ मतदाताओं में से 80 फीसद ने गणना प्रपत्रों के साथ अपने सहायक दस्तावेज जमा करा दिए हैं, जिनके सत्यापन की प्रक्रिया अभी चल रही है.

बाकी 20 फीसद यानी करीब 1.45 करोड़ मतदाताओं के लिए पात्रता साबित करने की खातिर दस्तावेज जमा कराने की अंतिम तिथि 1 सितंबर करीब आ रही है. राजनैतिक विश्लेषक और स्वराज अभियान के संस्थापक योगेंद्र यादव चेतावनी देते हैं कि जो मतदाता अगले महीने तक दस्तावेज जमा नहीं करा पाएंगे, उनके नाम भी हट सकते हैं, जिससे हटाए जाने वाले कुल नामों का अंतिम आंकड़ा 65 लाख से कहीं ज्यादा होगा.

सत्यापन के लिए कौन-सा दस्तावेज स्वीकारा जाएगा और कौन नहीं, यह इस पूरी प्रक्रिया में सबसे विवादास्पद पहलू बनकर उभरा. चुनाव आयोग की 11 स्वीकार्य दस्तावेजों की सूची में आधार, मतदाता पहचानपत्र (खुद आयोग की तरफ से जारी) और राशन कार्ड को शामिल नहीं किया गया था जबकि बिहार के गरीब और वंचित तबके के लिए पहचान के यही तीन सबसे सामान्य दस्तावेज हैं. इसके बजाए, आयोग ने जन्म प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, मैट्रिक प्रमाण पत्र, भूमि स्वामित्व के दस्तावेज, या 1987 से पहले के सरकारी रोजगार पहचानपत्र जैसे दस्तावेजों को स्वीकार्य बताया.

इस बात को समझते हुए कि लाखों मतदाताओं के पास ऐसे दस्तावेजों का अभाव है, अधिकारियों ने 'वंशावली’  बनाई है, जो मौजूदा मतदाताओं को 2003 की मतदाता सूची में शामिल अपने परिवार के सदस्यों के साथ जोड़ती है. पंचायतों की तरफ से प्रमाणित वंशावली अभिलेखों ने करीब 4.96 करोड़ मतदाताओं को जन्म प्रमाणपत्र या शैक्षिक दस्तावेज पेश किए बिना अपनी पात्रता स्थापित करने में सक्षम बनाया.

पूरी प्रक्रिया को अपनी जरूरत के हिसाब से ढालने वाला यह रचनात्मक समाधान काफी बेतुका नजर आता है क्योंकि चुनाव आयोग एक तरफ जहां नागरिकता के दस्तावेजी साक्ष्यों पर जोर देता है, वहीं दूसरी तरफ ग्राम-स्तरीय वंशावली प्रमाणीकरण को भी स्वीकार करता नजर आता है.

सुप्रीम कोर्ट ने एसआइआर को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान आयोग को आधार और मतदाता पहचानपत्र को पात्रता के वैध दस्तावेज के तौर पर स्वीकारने की सलाह दी है. फिर भी चुनाव आयोग अपने सत्यापन दस्तावेजों को बढ़ाने से लगातार इनकार करता आ रहा है.

उसका तर्क है कि ये सामान्य दस्तावेज नागरिकता को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही आगाह कर दिया है कि अगर ''बड़े पैमाने पर नाम काटे जाने’’ के सबूत सामने आए तो वह मामले में दखल देखा. हालांकि, इस दखल की सीमा क्या होगी, यह उसने अभी स्पष्ट नहीं किया है.

ऐसी चुप्पी क्यों
मताधिकार से वंचित रह जाने के संभावित खतरे के बावजूद चुनाव आयोग की दावा और आपत्ति प्रक्रिया के प्रति गहरी निष्क्रियता कुछ अजीब ही लगती है. 7 अगस्त तक केवल 75,015 लोगों ने शिकायत दर्ज कराई थी. इससे बड़ी बात तो यह है कि राजनैतिक दलों की तरफ से तैनात किए गए 1,60,000 बूथ-स्तरीय एजेंटों में से किसी ने भी एक भी दावा या आपत्ति पेश नहीं की.

आयोग बार-बार इस पर जोर देता रहा है कि संबंधित ईआरओ या सहायक ईआरओ की तरफ से जांच किए बिना और संबंधित मतदाता की बात निष्पक्ष तरीके से सुने बगैर मसौदा मतदाता सूची से कोई भी नाम हटाया नहीं जाएगा. नाम हटाने के आदेश लिखित और तार्किक होने चाहिए, जिसमें पहले जिला मजिस्ट्रेट और फिर मुख्य निर्वाचन अधिकारी के सामने अपील करने का प्रावधान है. लेकिन इस पर संदेह है कि क्या विस्तृत प्रक्रिया सीमित समयसीमा में लाखों नामों से जुड़ी संभावित चुनौतियों से निबटने में सक्षम होगी, क्योंकि चुनाव अक्तूबर-नवंबर में प्रस्तावित हैं.

बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस की अगुआई में विपक्ष ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सत्तारूढ़ एनडीए, खासकर भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए ''वोटबंदी’’ करने और जानबूझकर लोगों को मताधिकार से वंचित करने के आरोप लगाए. उनका कहना है कि आयोग हटाए गए मतदाताओं के बारे में व्यापक डेटा उपलब्ध कराए ताकि अपनाई गई प्रक्रिया का पैटर्न पता लगाया जा सके.

हालांकि, विपक्ष की दुविधा उस समय एक राजनैतिक नौटंकी ही नजर आई जब राजद नेता तेजस्वी यादव ने आरएबी2916120 नंबर वाला एक मतदाता पहचानपत्र दिखाते हुए दावा किया कि उनका नाम मतदाता सूची से हटा दिया गया है. आयोग ने तुरंत इसका खंडन किया और यह भी पुष्ट कर दिया कि उनका वैध कार्ड (आरएबी0456228) बरकरार है और वे जो कार्ड दिखा रहे हैं, उस नंबर से उन्हें कभी कोई कार्ड जारी नहीं किया गया.

इस घटना ने न केवल बिहार में विपक्ष के नेता को शर्मिंदा किया बल्कि राजनैतिक दलों के सामने उपजी चुनौती भी उजागर कर दी. बिना पुख्ता प्रमाण के गलत तरीके से नाम हटाने का दावा करना इसे कानूनी चुनौती देने या जनमत जुटाने में उनके अक्षम का परिचायक है.

मिथक और सचाई
एसआइआर पर एक बात लगातार कही जा रही है कि इसका उद्देश्य मुस्लिम मतदाताओं को निशाना बनाना है, खासकर सीमावर्ती जिलों में जहां सांप्रदायिक बयान जारी करते वक्त अक्सर उन्हें अवैध बांग्लादेशी कहा जाता है. बेशक, सबसे ज्यादा नाम हटाने की दर वाले 10 जिलों में से पांच—पूर्णिया, किशनगंज, मधुबनी, भागलपुर और सीतामढ़ी—में खासी मुस्लिम आबादी बसी हुई है (देखें: एसआइआर के निशाने पर मुस्लिम मतदाता?). लेकिन और ज्यादा गहराई से नजर डालने पर यह अंतर्संबंध टूट जाता है.

बिहार के एकमात्र मुस्लिम-बहुल जिले (68 फीसद मुस्लिम आबादी) किशनगंज में 11.8 फीसद नाम हटाए गए, जो राज्य के औसत 8.3 प्रतिशत से ज्यादा है. वहीं, क्रमश: 44 और 43 फीसद मुस्लिम आबादी वाले कटिहार और अररिया में नाम हटाने की दर 8.27 फीसद और 7.59 फीसद रही, जो राज्य के औसत से कम है. दिलचस्प ये भी है कि नाम हटाने की दर सबसे ज्यादा 15 फीसद गोपालगंज जिले में दर्ज की गई जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा नहीं है.

यह अंतर दर्शाता है कि यह पता लगाना भले ही जरूरी हो कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों और ज्यादा नाम हटने की दर के बीच क्या संबंध है, लेकिन लोगों के स्थायी रूप से दूसरी जगह जाकर बसने, दस्तावेजों की अनुपलब्धता, या प्रशासनिक दक्षता जैसे अन्य कारक भी समान रूप से अहम हो सकते हैं. चुनाव विश्लेषक अमिताभ तिवारी कहते हैं, ''अभी तक कोई सीधा संबंध नहीं दिख रहा, जब तक मुस्लिम मतदाताओं के हटाए गए नामों की संख्या 18 फीसद से ज्यादा न हो जाए जितनी राज्य की आबादी में उनके हिस्सेदारी है.’’

एक अन्य पैटर्न दर्शाता है कि सोची-समझी रणनीति के तहत नाम काटने की कहानी कितनी अस्थिर है. बिहार की 243 विधानसभा सीटों में से 112 पर जितने वोटरों के नाम कटे हैं, वे हार-जीत के अंतर से ज्यादा हैं. यह आंकड़ा बताता है कि राज्य के लगभग आधे निर्वाचन क्षेत्रों में गहन समीक्षा प्रक्रिया से चुनावी नतीजे बदल सकते हैं.

अब, दूसरा पहलू देखें तो पता चलता है कि इन 112 में से 57 सीटों (51 फीसद) पर एनडीए के सहयोगी काबिज हैं—27 पर भाजपा, 29 पर जनता दल (यूनाइटेड) या जदयू और एक पर लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा). सीधा मतलब है कि एनडीए के अपने विधायकों पर भी एसआइआर का उतना ही चुनावी प्रभाव पड़ने वाला है जितना विरोधी दल के सदस्यों पर. तिवारी कहते हैं, ''जाति-वार आंकड़ों के बिना, खासकर यह कि क्या मुसलमानों और यादवों में नाम हटाने की संख्या ज्यादा है, यह तय करना असंभव है कि भाजपा को इस प्रक्रिया से कोई फायदा होगा या नहीं.’’

महिलाएं भी प्रभावित
आयोग के आंकड़े लैंगिक असमानता के लिहाज से भी काफी चौंकाने वाले हैं. बिहार में महिला मतदाताओं की हिस्सेदारी महज 47.7 फीसद होने के बावजूद हटाए गए मतदाताओं में 55 फीसद महिलाएं हैं. यहां तक कि कुल 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 43 में हटाए गए मतदाताओं में 60 फीसद या उससे ज्यादा महिलाएं ही हैं. सबसे चरम स्थिति तो कैमूर जिले की अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट राजपुर में सामने आई जहां कुल कटे नामों में 69 प्रतिशत महिलाएं हैं. पूरे कैमूर में यह आंकड़ा 64 फीसद है, जिसके बाद बक्सर में 63 फीसद महिलाओं के नाम काटे गए हैं.

चुनाव आयोग की ओर से मसौदा मतदाता सूची जारी करने के बाद 2 अगस्त को पटना में आरजेडी के तेजस्वी यादव की प्रेस कॉन्फ्रेंस

महिलाओं, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं के पास एसआइआर के तहत मान्य दस्तावेजी प्रमाण होने की गुंजाइश बहुत कम रहती है. वे शादी के बाद अपने ससुराल चली जाती हैं और अक्सर कम साक्षरता दर के कारण उनके पास शैक्षिक प्रमाणपत्र भी नहीं होते हैं.

फिर, आधिकारिक दस्तावेज जारी करने वाली सरकारी संस्थाओं तक उनकी पहुंच बहुत सीमित होती है. बड़ी संख्या में महिलाओं का नाम कटना विडंबना ही कहा जाएगा क्योंकि पिछले कुछ समय में बिहार चुनावों में महिला मतदाताओं ने निर्णायक भूमिका निभाई है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों के लिए वे महत्वपूर्ण वोट बैंक बन चुकी हैं.

गंभीर चिंता
अगर एसआइआर के किसी पहलू पर सबसे ज्यादा विवाद खड़ा हुआ तो वह है 22.3 लाख मतदाताओं को मृत घोषित किया जाना. विपक्षी दलों ने कई बार मांग की है कि पूरी प्रक्रिया की कार्यप्रणाली की पारदर्शिता स्पष्ट की जाए. साथ ही सवाल उठाया कि चुनाव आयोग ने एक ऐसे राज्य में इतनी बड़ी संख्या में मौतों का सत्यापन कैसे किया, जहां सरकार खुद मानती है कि मृत्यु पंजीकरण बेहद कम है.

इस अस्पष्टता ने ही मनमाने तरीके से नाम हटाने की अटकलों को हवा दी. विपक्षी नेताओं का कहना है कि बहुत संभव है कि इनमें से तमाम 'मृत’ मतदाता जीवित होंगे लेकिन गणना के दौरान अस्थायी रूप से अनुपस्थित रहे होंगे. बिहार के प्रवासी मजदूरों के परिवारों को लेकर यह डर खासा गहरा है, जिनकी अनुमानित संख्या 74 लाख से ज्यादा है. ये मजदूर अक्सर महीनों-सालों दूसरे राज्यों में जाकर काम करते हैं और हो सकता है कि उन्हें सिर्फ इसलिए मृत घोषित कर दिया गया हो क्योंकि अधिकारियों के घर आने के दौरान वे वहां नहीं मिले होंगे.

जमीनी स्तर पर एसआइआर प्रक्रिया के दौरान अफरा-तफरी में कई हास्यास्पद गलतियां भी सामने आईं. एक असंभव-सी समय-सीमा में बंधे बूथ-स्तरीय अधिकारियों ने कहीं पिता के नाम की जगह सिर्फ 'पिता’ लिख दिया और कहीं पत्नियों के नाम के आगे 'पति’ दर्ज कर लिया.

कई बार तो बड़ी अटपटी घटनाएं भी सामने आईं. पटना जिले के धनरुआ प्रखंड में वैवाहिक कलह से आजिज आए एक सरकारी क्लर्क ने अपनी पत्नी को मृत घोषित कर और उसका नाम मतदाता सूची से कटाने के लिए एक फर्जी मृत्यु प्रमाणपत्र जमा कर दिया. लेकिन एक सतर्क बीएलओ ने इस 'चुनावी हत्या’ की साजिश को नाकाम कर दिया.

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अब सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, जिसका कहना है कि चुनाव आयोग को यह निर्देश दिया जाए कि मसौदा मतदाता सूची से बाहर किए गए मतदाताओं के नाम के साथ उनकी मृत्यु, दूसरी जगह चले जाने या दोहराव जैसे विशिष्ट कारणों को प्रकाशित किया जाए. 20 जुलाई को राजनीतिक दलों के बूथ-स्तरीय एजेंटों (बीएलए) के साथ साझा की गई सूचियों में नाम, मतदाता पहचान पत्र संख्या और नाम हटाने के कारण दिए गए थे जबकि 1 अगस्त की मसौदा सूचियों में कारणों को हटा दिया गया.

फिर भी ऐसे राज्य में, जहां बिजली कटौती जैसे मुद्दों तक पर स्वतस्फूर्त विरोध प्रदर्शन जोर पकड़ लेता है, मतदाता सूची से 65 लाख नाम हटाए जाने के बावजूद अजीब शांति छाई हुई है. गोपालगंज जैसे जिलों में हर छह में से एक मतदाता का नाम हटने के बाद भी सड़कों पर कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही.

कई विश्लेषक इसके लिए बिहार के मतदाताओं की उदासीनता को जिम्मेदार मान रहे हैं जो चुनाव में मतदान कम करते जा रहे हैं और हालिया चुनाव में उनकी भागीदारी 60 फीसद रही है. यानी 40 प्रतिशत मतदाताओं की मताधिकार के प्रति दिलचस्पी सीमित है.

आपत्तियां दर्ज करने के लिए चुनाव आयोग ने एक महीने का समय दिया है और शायद इससे वोटरों को यह भरोसा है कि उचित प्रक्रियाओं से नाम पुन: दर्ज करा सकते हैं. मसौदा मतदाता सूची कार्यालयों में भले ही सन्नाटा पसरा हो लेकिन बिहार में लोकतंत्र शायद एक निर्णायक मंथन के दौर से गुजर रहा है.

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