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आगरा में पेठा बनाने वाली कंपनियों पर क्यों लगने लगा ताला?

मुगल काल से ही आगरा के नूरी गेट पर पेठा बनाने की परंपरा रही है. इन कारखानों को शहर से बाहर जाने का फरमान सुना दिया गया है

आगरा के नूरी गेट इलाके में पेठा बनाने वाली एक दुकान
अपडेटेड 3 जून , 2025

हवा में शीरे की महक है, सड़क के दोनों तरफ कारखानों से गरम-गरम पेठे निकल रहे हैं, उनकी चीनी पगी यादें रंग-बिरंगें डिब्बों में सड़क, रेल और अब हवाई रास्तों से देश के कोने-कोने के सफर पर निकल पड़ी हैं.

आगरा के नूरी गेट की यही पहचान है. ताज महल से करीब सात किमी दूर मिठाई की ये देसी दुकानें मिली-जुली संस्कृति की मिठास की छोटी-छोटी और नाजुक निशानियां भी तैयार करती हैं.

ताज का जन्म शाहजहां के दिमाग में हुआ, तो किंवदंती है कि पेठा उनकी शाही रसोई में जन्मा ताज जितना ही खालिस और सफेद मीठा पकवान रचने के शाही फरमान पर! संगमरमर से सफेद कद्दू की अदलाबदली की गई, आगरा का जादुई मंत्र फूंका गया, और लो...दुनिया अचानक कुछ और मीठी हो गई.

मिठास पर ग्रहण
वह जादुई मंत्र टूट रहा है. मुगल काल से ही चले आ रहे नूरी गेट के पेठा बनाने वाले इन कारखानों को शहर से बाहर जाने का फरमान सुना दिया गया है. इससे इतिहास के साथ दूसरे रिश्ते भी टूट जाते हैं. 1929 में क्रांतिकारी भगत सिंह ने ब्रिटिश पुलिस अफसर जॉन सॉन्डर्स (लाहौर षड्यंत्र केस, जिसमें उन्हें फांसी हुई) को गोली मारने के बाद कुछ दिन इसी नूरी गेट इलाके के एक दोमंजिला मकान में छिपकर बिताए थे.

उसी मकान की बगल में 63 वर्षीय गिरीश बंसल रहते हैं. उन्होंने 1980 में दो कमरों के अपने घर से पेठा बनाने का करियर शुरू किया. 40 साल से ज्यादा बीतने के बाद उनके माथे पर परेशानी की लकीरें हैं. वे कहते हैं, ''मेरे पास 30 किमी दूर जाकर नए सिरे से कारोबार स्थापित करने के लिए संसाधन नहीं हैं. बहुत ज्यादा दबाव हुआ तो मैं पेठा बनाना ही बंद कर दूंगा और किराने की दुकान खोल लूंगा, लेकिन यहां से जाऊंगा नहीं.''

नूरी गेट के एक और निवासी 50 वर्षीय अनूप मित्तल पेठे से बनने वाली एक खास मिठाई गिलौरी पत्ता बनाते हैं. वे कहते हैं, ''मैं अपने दोमंजिला मकान की निचली मंजिल पर पेठा बनाता हूं. यह मेरे परिवार के लिए कुटीर उद्योग है. अगर मैं दूसरी जगह जाऊं भी तो उसका खर्चा नहीं उठा पाऊंगा. मुझे (काम) बंद करना पड़ेगा.''

नूरी गेट पर पेठे के उत्पादन से जुड़ी 500 से ज्यादा छोटी-बड़ी इकाइयां हैं. 5,000 से ज्यादा लोग यहां काम करते हैं, जो रोज 1,000 क्विंटल पेठे तैयार करते हैं. यह इलाका करीब तीन दशकों से नाराज सरकारी योजनाकारों का ध्यान खींचता रहा है और इसकी वजह यह है कि ताज से पेठे का रिश्ता उलट गया है: डर है कि इस मिठाई उद्योग से पैदा प्रदूषण धरोहर को नुक्सान पहुंचा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट ने 3 अप्रैल को पेठा बनाने वाली इकाइयों को शहर से बेदखल करने का आदेश दिया. अदालत ताज ट्रैपेजियम जोन (टीटीजेड) से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही थी, जो ताज के इर्द-गिर्द इसे प्रदूषण से बचाने के लिए स्थापित 10,400 वर्ग किमी का निर्दिष्ट इलाका है. फिर आगरा प्रशासन और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) ने पेठा इकाइयों का सर्वे शुरू कर दिया.

प्रदूषण वाकई मुद्दा है. 1983 में टीटीजेड की स्थापना के बाद भट्टियों में कोयले के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी गई और पेठा इकाइयों ने गैस पर आधारित टेक्नोलॉजी अपना ली. 2013 में यूपीपीसीबी ने आगरा में कोयले से लदे ट्रकों के प्रवेश पर पूरी पाबंदी लगा दी. मगर समस्याएं बनी रहीं. सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट (सीएसई) के 2013 के अध्ययन के मुताबिक, शहर का पेठा उद्योग रोज 17,800 किग्रा ठोस कचरा पैदा करता है, जिसमें ज्यादातर पेठे के छिलके, चीनी का शीरा और चूने का पानी होता है.

जिला अधिकारियों का कहना है कि 2018 में पेठा उत्पादकों को कचरे के समुचित निबटारे की अहमियत के बारे में शिक्षित करने का अभियान शुरू किया गया और बड़े खिलाड़ियों को उपकरण खरीदने के लिए मदद भी दी गई. वैसे, उद्योग का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र के तहत आता है और सरकारी लाभों के दायरे से बाहर है.

व्यापारी पेठे से प्रदूषण पैदा होने से इनकार करते हैं और कहते हैं कि उद्योग को दोषी ठहराने वाले आंकड़े 25 साल पुराने सर्वे के हैं. उद्योग के संगठित हिस्से की प्रमुख आवाज राजेश अग्रवाल कहते हैं, ''सारी इकाइयां अब गैस की भट्टियों से चलती हैं. छिलके की पहले कचरे के रूप में पहचान की गई थी, मगर अब वे पशु आहार के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं. उन्हें नया सर्वे करवाना चाहिए.''

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) में पेठे से होने वाले प्रदूषण के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे ईएनटी सर्जन डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य उनके भविष्य को लेकर सहानुभूति रखते हैं. वे कहते हैं, ''अगर सरकार ने समय रहते उन्हें सारी सुविधाएं मुहैया की होतीं, तो पेठा बनाने वालों को किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता.'' अब वे अपनी इकाइयों को कालिंदी विहार की न्यू पेठा सिटी में ले जाने की उदास संभावना से घिरे हैं. न्यू पेठा सिटी 1999 की पुरानी योजना है, जिस पर किसी भी व्यापारी से कोई सलाह नहीं ली गई.

इस लंबी कहानी के सिर पर त्रासद अंत मंडरा रहा है.

खास बातें
> पेठा उद्योग को आगरा से बाहर भेजने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से इस लंबे किस्से का अंत करीब.

> कई छोटे-छोटे परिवारों की ओर से संचालित छोटी दुकानें हैं जो 30 किमी दूर पेठा सिटी जाने में असमर्थ हैं.

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