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कर्नाटक में क्यों सिद्धारमैया सरकार के गले अटक गई जातियों की गणना?

जाति जनगणना के लिए कांग्रेस के उत्साह के बावजूद कर्नाटक में सिद्धरामैया सरकार के लिए 'सामाजिक और शैक्षिक सर्वेक्षण 2015' को अब पेश करना सियासी मुद्दा बन गया है

र्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरामैया 5 मार्च को बेंगलूरू में उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार के साथ.
अपडेटेड 26 मई , 2025

वह विषय जिसे कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरामैया लंबे वक्त से सुलझाना चाहते थे, आखिरकार 17 अप्रैल को मंत्रिमंडल की बैठक के एजेंडे में आ ही गया. देखते ही देखते इसने कांग्रेस के अपने विधायकों के अलावा राज्य के समुदाय प्रमुखों में भी न केवल खलबली मचा दी बल्कि अच्छी-खासी बहस छेड़ दी.

यह 2015 के कर्नाटक सामाजिक और शैक्षिक सर्वे की 306 पन्नों की रिपोर्ट थी, जिसे जाति जनगणना के नाम से बेहतर जाना जाता है. लुब्बेलुबाब यह कि रिपोर्ट कर्नाटक की आबादी का जातिवार ब्रेकप पेश करती है. इसके अलावा सामाजिक-आर्थिक, शैक्षिक और रोजगार के मापदंडों पर किए गए आकलन के आधार पर पिछड़े वर्ग का आरक्षण कोटा बढ़ाने की सिफारिश करती है, जिनकी आबादी राज्य की करीब 70 फीसद है.

सिद्धरामैया ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना पहला कार्यकाल शुरू करने के साल भर बाद 2014 में इस सर्वे का काम सौंपा था. तभी से यह रिपोर्ट सियासी तौर पर खासी संवेदनशील बनी हुई थी. यह कर्नाटक में 1984 के बाद पहला ऐसा सर्वे है जो घर-घर जाकर किया गया. इससे पहले जाति-आधारित जनसांख्यिकीय जानकारियां केवल 1931 की अखिल भारतीय जनगणना से मिली थीं जिसमें जातिगणना भी शामिल थी.

नए सर्वे की रिपोर्ट का विरोध कई हलकों से हुआ, लेकिन कर्नाटक के दो सबसे बड़े जाति समूह वीरशैव-लिंगायत और वोक्कलिगा इसे लेकर सबसे मुखर थे. उन्होंने इस कवायद की सटीकता पर संदेह जाहिर किए, जिसमें कर्नाटक की तकरीबन 6.35 करोड़ आबादी में से 5.98 करोड़ या कि 94 फीसद लोग शामिल थे. 2016 में कथित तौर पर 'लीक' जानकारी से बड़े समुदायों में अंदेशा पैदा हो गया कि उन्हें कम गिना गया है. हंगामा मचना लाजिमी था.

मगर सर्वे का असल डेटा सार्वजनिक नहीं किया गया. दरअसल, इसकी रिपोर्ट सरकार को सौंपी ही नहीं गई थी. यह 2023 तक नहीं सौंपी गई, जब तक सिद्धरामैया सत्ता में नहीं लौटे और उन्होंने कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के मौजूदा अध्यक्ष के. जयप्रकाश हेगड़े को 2015 के सर्वे से प्राप्त डेटा के आधार पर रिपोर्ट तैयार करने का काम नहीं सौंपा.

नई रिपोर्ट हेगड़े ने फरवरी 2024 में सौंपी लेकिन अब तक वह सीलबंद डिब्बों में ही रहने दी गई थी. 11 अप्रैल को मंत्रिमंडल की बैठक में इसे खोला गया. अलबत्ता इस बीच कर्नाटक अकेला राज्य नहीं रह गया जहां इस तरह के आंकड़े जुटाए गए थे. बिहार ने अक्तूबर 2023 में अपने जाति सर्वेक्षण के नतीजे घोषित किए, तो कांग्रेस की हुकूमत वाला तेलंगाना फरवरी 2025 में अपनी जातिगणना के नतीजे लेकर आया.

दोनों राज्यों ने शुरू करने के एक साल के भीतर यह कवायद पूरी की. दरअसल हाल में अहमदाबाद में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में इस उपलब्धि के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी की तारीफ की गई, खासकर जब जाति जनगणना वह प्रमुख कार्ययोजना है जिसके पीछे लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने अपना पूरा जोर लगा दिया है.

यह 2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के घोषणापत्र का प्रमुख वादा भी था. यही वजह थी कि साल भर की टालमटोल के बाद सिद्धरामैया के पास यह रिपोर्ट सामने लाने के अलावा कोई चारा न था.

मगर यह कदम संयोग से मुख्यमंत्री के उस दूसरे कार्यकाल का दूसरा साल पूरा होने के मौके पर उठाया गया जिसमें राज्य के शीर्ष पद पर आने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार के साथ उनकी प्रतिद्वंद्विता प्रमुखता से सामने आई है. बीच कार्यकाल में ही नेतृत्व में बदलाव की चर्चा कर्नाटक में कांग्रेसी निजाम की स्थायी पहेली बना हुआ है, जिसने विपक्षी पार्टियों को निशाना साधने का काफी मौका दिया है. विधानसभा में विपक्ष के नेता भाजपा के आर.

अशोक ने 16 अप्रैल को एक्स पर एक पोस्ट में कहा, ''जब भी मुख्यमंत्री की कुर्सी खतरे में होती है, वे ध्यान भटकाने के लिए जाति जनगणना का इस्तेमाल करते हैं.'' उन्होंने रिपोर्ट को 'अवैज्ञानिक' करार दिया और उस पर 12 सवालों की झड़ी लगा दी. उन्होंने ध्यान दिलाया कि वोक्कलिगा शिवकुमार ने 2023 में इस रिपोर्ट को खारिज करने के लिए जाति संगठन राज्य वोक्कालिगारा संघ के मांगपत्र पर दस्तखत किए थे. रिपोर्ट रखे जाने के साथ ही शिवकुमार 17 अप्रैल की मंत्रिमंडल की बैठक से पहले कांग्रेस के विधायकों के साथ चर्चा के लिए इकट्ठा हुए, जिसमें कोई फैसला न हो सका.

जाति जनगणना

कर्नाटक के जाति सर्वेक्षण का प्रमुख उद्देश्य विभिन्न समुदायों की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक प्रगति के बारे में प्रामाणिक जानकारी जुटाना था ताकि उसके आधार पर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण नीति तैयार की जा सके. मैसूर रियासत आरक्षण का रास्ता दिखाने वालों में से एक थी. महाराजा कृष्णराजा वाडियार चतुर्थ ने 1921 में सिफारिश की कि ब्राह्मणों के अलावा सभी समुदायों को पिछड़ा समुदाय समझा जाएगा.

बीते 50 साल में तीन समितियों की रिपोर्टों ने पिछड़े वर्गों के लिए राज्य की आरक्षण नीति का मार्गदर्शन किया. ये थीं 1975 में पेश हवनूर रिपोर्ट, 1986 की टी. वेंकटस्वामी रिपोर्ट (जिसे खारिज कर दिया गया), और 1990 की न्यायमूर्ति ओ. चिनप्पा रेड्डी रिपोर्ट. मगर 1994 में कर्नाटक सरकार ने जो आरक्षण नीति तैयार की, उसमें सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तय 50 फीसद की सीमा का उल्लंघन हुआ और इसलिए कानूनी चुनौती मिलने के बाद उसे संशोधित करना पड़ा.

इस तरह से पिछड़े वर्गों को चार समूहों में बांटा गया, जिसका आज भी पालन किया जाता है. आरक्षण में इन चार श्रेणियों—I, II ए, II बी, III और III बी की हिस्सेदारी 32 फीसद है, इसके अलावा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए 18 फीसद आरक्षण है.

सामाजिक और शैक्षिक सर्वेक्षण 2024 की रिपोर्ट 2015 में घर-घर जाकर की गई गणना के दौरान 54 सूत्रीय प्रश्नावली पर आधारित है. इसके मुताबिक, राज्य की आबादी में एससी और एसटी क्रमश: 18.27 फीसद और 7.16 फीसद थे. बाकियों में सबसे बड़े समुदाय 76 लाख (12.87 फीसद) मुसलमान, 66 लाख (11.09 फीसद) वीरशैव-लिंगायत, 61 लाख (10.31 फीसद) वोक्कालिगा और 44 लाख (7.3 फीसद) कुरुबा थे. जातिगणना रिपोर्ट राज्य के पिछड़े वर्गों का आरक्षण कोटा मौजूदा 32 फीसद से बढ़ाकर 51 फीसद करने की सिफारिश करती है. यह ओबीसी आरक्षण की श्रेणी को दो में बांटने और कुछ जातियों को एक से दूसरी श्रेणी में ले जाने की भी सलाह देती है.

तगड़ा विरोध

कांग्रेस के दिग्गज विधायक और अखिल भारतीय वीरशैव-लिंगायत महासभा के अध्यक्ष शमनूर शिवशंकरप्पा ने चेतावनी दी कि रिपोर्ट लागू हुई तो इसकी तीखी प्रतिक्रिया होगी और लिंगायत तथा वोक्कलिगा समुदाय इसके लिए मिलकर लड़ेंगे. डेटा को दोषपूर्ण करार देते हुए महासभा बताती है कि 1990 में ही वेंकटस्वामी आयोग ने वीरशैव-लिंगायत समुदाय की आबादी 60 लाख या कुल आबादी की 17 फीसद आंकी थी. उनका दावा है कि आबादी कम आंकी गई है क्योंकि 2015 के सर्वे में समुदाय के विभिन्न उप-पंथों की सटीक गणना नहीं हुई और 16 उप-पंथों को छोड़ दिया गया. उन्होंने नए सर्वे की मांग की है.

अखिल भारतीय वीरशैव महासभा के सचिव एच.एम. रेणुका प्रसन्ना कहते हैं, ''हम रिपोर्ट को सिरे से खारिज करते हैं.'' राज्य वोक्कलिगा संघ ने भी यही रुख अपनाया और समुदाय के विधायकों से कहा कि अगर रिपोर्ट लागू की जाती है तो वे इस्तीफा दे दें. प्रमुख वोक्कलिगा नेता, जनता दल (सेक्युलर) के राज्य अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री एच.डी. कुमारस्वामी ने 15 अप्रैल को एक्स पर एक पोस्ट में कहा, ''वोक्कलिगा समुदाय की संख्या ने ही नहीं, वीरशैव-लिगांयत और अन्य समुदायों से जुड़े आंकड़ों ने भी मुझे चौंका दिया.''

मुख्यमंत्री सिद्धरामैया पर जाति जनगणना का इस्तेमाल कुछ समुदायों के खिलाफ राजनैतिक औजार के रूप में करने का आरोप लगाते हुए कुमारस्वामी ने पूछा, ''IIए श्रेणी के तहत 101 जातियां हैं और आरक्षण 15 फीसद है. इसका सबसे बड़ा हिस्सा किसने लिया?'' उनका इशारा कुरुबा समुदाय की तरफ था, जिससे सिद्धरामैया आते हैं और जिसे अभी आरक्षण की IIए श्रेणी में रखा गया है. रिपोर्ट इसे 'सबसे पिछड़ा श्रेणी' Iबी में ले जाने की सिफारिश करती है, जहां आलोचकों का कहना है कि आरक्षण कोटे में उसे और बड़ा हिस्सा मिल जाएगा.

कुमारस्वामी के सवाल का जवाब कर्नाटक राज्य पिछड़ी जाति संघ के अध्यक्ष और कुरुबा समुदाय के नेता के.एम. रामचंद्रप्पा देते हैं, ''कुरुबा समुदाय के बारे जानकारी सामने लाएं तो सही. मैं भी सामने लाऊंगा कि वोक्कलिगाओं को कैसे फायदा मिला. चलिए, दोनों सार्वजनिक चर्चा करते हैं.'' यह बताते हुए कि पिछड़ा वर्ग आयोग की पिछली हरेक रिपोर्ट में अगड़े समुदायों ने अड़ंगे डाले थे, उनका कहना है कि सरकार को 2024 की रिपोर्ट का पूरा डेटा जारी करे. वे कहते हैं, ''कई छोटे-छोटे समुदाय हैं जिन्हें अब भी नहीं पता कि वे कहां खड़े हैं. हमारे पास साफ जानकारी नहीं कि बीते 50 साल में सरकारी कार्यक्रम किन लोगों तक पहुंचे.''

राजनैतिक निहितार्थों को देखते हुए सिद्धरामैया की अगुआई वाली सरकार रिपोर्ट पर फूंक-फूंककर कदम रख रही है. कानून मंत्री एच.के. पाटील के मुताबिक, 17 अप्रैल की मंत्रिमंडल की बैठक में, जहां जातिगणना के बारे में शुरुआती विचार रखे गए, कई मंत्रियों ने डेटा के बारे में और जानकारी मांगी. लिहाजा, रिपोर्ट पर फैसला लेने के लिए 2 मई को मंत्रिमंडल की एक और बैठक बुलाना तय किया गया. कर्नाटक की जाति जनगणना राजनैतिक तौर पर हमेशा संवेदनशील मुद्दा रही है. सवाल यह है कि कांग्रेस सरकार इस सबके बीच से कैसे रास्ता निकालती है.

बवाल के बिंदु
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कर्नाटक जाति जनगणना की रिपोर्ट में राज्य के अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण मौजूदा 32% से बढ़ाकर 51% करने की सिफारिश की गई है. इससे कुल आरक्षण 85% हो जाएगा (इनमें 24 फीसद एससी/एसटी और 10 फीसद ईडब्ल्यूएस वर्ग शामिल).

> वीरशैव-लिंगायत और वोक्कलिगा जैसे प्रभावी ओबीसी समुदायों का कहना है कि सर्वे 'अवैज्ञानिक' है. उनका दावा है कि उन जातियों के लोगों को कम करके गिना गया है.

> उनको अंदेशा है कि उनका सियासी दबदबा घटेगा; कर्नाटक के 23 मुख्यमंत्रियों में से 16 इन्हीं दो समुदायों से रहे हैं. राज्य की मौजूदा 33 सदस्यीय कैबिनेट में से 13 लिंगायत और वोक्कलिगा हैं.

> नए सिरे से वर्गीकरण में कुरुबा को अति पिछड़ा वर्ग वाली I बी श्रेणी में रखे जाने से लोगों की भौंहें तन गई हैं. 2015 में सर्वे का आदेश देने वाले मुख्यमंत्री सिद्धरामैया कुरुबा समुदाय से ही हैं.

दिग्गज कांग्रेस विधायक और अखिल भारतीय वीरशैव महासभा के अध्यक्ष शमानुर शिवशंकरप्पा ने रिपोर्ट लागू होने पर तगड़ी प्रतिक्रिया की चेतावनी दी है और कहा है कि इस मामले में लिंगायत और वोक्कलिगा समुदाय मिलकर लड़ेंगे.

- अजय सुकुमारन

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