scorecardresearch

बिहार: तनाव भरे गठबंधन के बावजूद क्या कांग्रेस को दोबारा जिंदा कर पाएंगे राहुल गांधी?

कांग्रेस ने बिहार में वर्षों बाद पार्टी को पुनर्जीवित करने के प्रयास शुरू किए हैं और राहुल गांधी तीन बार राज्य का दौरा कर चुके हैं.

कन्हैया कुमार के 'पलायन रोको, नौकरी दो' मार्च के दौरान राहुल गांधी 7 अप्रैल को बेगूसराय में.
अपडेटेड 26 मई , 2025

कांग्रेस महासचिव सचिन पायलट की तरफ से 11 अप्रैल को पटना में की गई एक तीखी टिप्पणी इस प्रतिक्रिया के लिए पर्याप्त थी कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) नेता तेजस्वी यादव अपने प्रमुख सहयोगी दल के शीर्ष नेतृत्व से संपर्क साधें.

पायलट ने कहा था कि बिहार में राजद-कांग्रेस गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी पर फैसला इस वर्ष के अंत में प्रस्तावित चुनाव के बाद किया जाएगा. जाहिर है कि यह बयान बदले रुख का संकेत था, जिसमें राजद को यह संदेश देने की कोशिश की गई कि वह कांग्रेस को हल्के में न ले.

तेजस्वी यादव 15 अप्रैल तक नई दिल्ली पहुंच गए, जहां उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से मुलाकात की. बताया जाता है कि बंद दरवाजों के पीछे चली इस मुलाकात के दौरान उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व को 2020 के चुनाव की कड़वी यादें ताजा करा दीं, जब गठबंधन सिर्फ 12 सीटों से सत्ता से चूक गया था. उस समय 144 सीटों पर चुनाव लड़कर राजद ने 75 सीटें जीती थीं और सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.

वहीं कांग्रेस 70 में से सिर्फ 19 सीटें जीत पाई थी और गठबंधन को बहुमत के अभाव में सत्ता से दूर रहना पड़ा था. यहां तक कि वाम दलों ने भी अपने स्तर पर अच्छा प्रदर्शन किया था और 29 में से 16 सीटों पर जीत हासिल की थी.

नई दिल्ली में हुई बैठक के ठीक दो दिन बाद 17 अप्रैल को भरपाई के तौर पर तेजस्वी को इंडिया गठबंधन की समन्वय समिति का प्रमुख बनाया गया. समिति बिहार में सीटों का बंटवारा और चुनाव रणनीति तय करेगी. इससे संकेत मिलता है कि कांग्रेस अभी तक तो गठजोड़ में बदलाव की पक्षधर नहीं लगती.

इस बीच, कांग्रेस बिहार में जोश में दिख रही है और वर्षों बाद पार्टी को पुनर्जीवित करने के प्रयास शुरू किए गए हैं. राहुल गांधी खुद को पिछड़ों और दलितों का बड़ा पैरोकार बताते हुए इस साल पहले ही तीन बार राज्य का दौरा कर चुके हैं, जिसमें बेगूसराय में कन्हैया कुमार के 'पलायन रोको, नौकरी दो' मार्च में शामिल होना भी शामिल है. अंदरूनी सूत्रों की मानें तो राजद नेतृत्व में कन्हैया कुमार की लोकप्रिय अपील को लेकर कहीं न कहीं थोड़ी बेचैनी जरूर है.

कांग्रेस नेतृत्व में हालिया फेरबदल भी काफी कुछ कहता है. फरवरी में राहुल के पसंदीदा कृष्ण अल्लावरु को एआइसीसी का राज्य प्रभारी बनाया गया जो आइएनएसईएडी डिग्री वाले एक तेजतर्रार युवा नेता हैं. यह बदलाव का स्पष्ट संकेत था. एक महीने बाद दलित नेता राजेश कुमार ने अगड़ी जाति के दिग्गज अखिलेश प्रसाद सिंह की जगह बिहार इकाई के प्रमुख के तौर पर पदभार संभाला. वे संख्या के लिहाज से अहम रविदास समुदाय से आते हैं. जाहिर है, कांग्रेस राज्य में खोई जमीन हासिल करने के लिए उत्सुक है और सहयोगी दल की छाया से बाहर निकलना चाहती है.

हालांकि, यह सब नेकनीयत के साथ आगे बढ़ने का मामला नहीं है. राजद को भी रास्ता देना होगा. लेकिन वह कितनी उदारता दिखा सकता है? असल बात यह है कि नीतीश कुमार के दो दशकों तक सत्ता में रहने के बाद उपजा असंतोष तेजस्वी के सत्ता हासिल करने की उम्मीदें बढ़ा रहा है और वक्फ संशोधन विधेयक पारित होने के बाद संभावित मुस्लिम ध्रुवीकरण से इसकी संभावनाएं और भी बढ़ गई हैं. ऐसे में राजद को कांग्रेस की अपनी जड़ें मजबूत करने की कोशिश बहुत ज्यादा रास न आना स्वाभाविक ही है.

मगर कांग्रेस अपने इरादों पर अडिग है. करीब 35 वर्षों तक हाशिये पर रहने के बाद 2024 के लोकसभा चुनाव में थोड़े सम्मानजनक प्रदर्शन ने कांग्रेस का हौसला बढ़ाया. पार्टी ने गठबंधन में मिली नौ सीटों में तीन पर जीत हासिल की, जबकि राजद ने 23 में से सिर्फ चार सीटें जीतीं. यही नहीं, बिहार से गुजरी राहुल गांधी की दूसरी भारत जोड़ो यात्रा ने भी जाति और रोजगार पर फोकस के साथ सियासी नैरेटिव काफी हद तक सेट किया. पार्टी को उम्मीद है कि उसका सड़कों पर उतरना फायदेमंद साबित होगा और वह विधानसभा चुनाव में सीटों के मामले में अपने सम्मान से समझौता करने को तैयार नहीं.

वैसे, नई ऊर्जा के बावजूद कांग्रेस को ढांचागत चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है. उसके पास मजबूत स्थानीय नेतृत्व, संगठनात्मक ताकत और भरोसेमंद वोट आधार का खासा अभाव है. कांग्रेस मध्य प्रदेश या राजस्थान में तो भाजपा के लिए मुख्य चुनौती बनी हुई है, लेकिन बिहार में स्थिति उलट है, जहां यह सहयोगी दल राजद के मुस्लिम-यादव समर्थन पर निर्भर है. असल में, पिछले कुछ वर्षों में अखिलेश सिंह जैसे कांग्रेस के दिग्गज नेता वरिष्ठ सहयोगी दल के प्रति अत्यधिक उदार रवैया अपनाए रहे हैं.

कांग्रेस की आंतरिक गतिशीलता भी स्थिति सुधारने में मददगार नहीं रही. पूर्व पार्टी प्रमुख अशोक चौधरी 2018 में नीतीश की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) में शामिल हो गए और उनके मंत्रिमंडल का हिस्सा हैं. यहां तक कि अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर देने वाले पप्पू यादव जैसे प्रमुख सहयोगी को कथित तौर पर तेजस्वी की आपत्तियों के कारण पिछले साल पूर्णिया से लोकसभा टिकट न दिया जाना मुश्किलें बढ़ाने वाला साबित हुआ. उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. कन्हैया जैसे तेजतर्रार नेताओं को भी पिछले कुछ समय तक हाशिए पर रखा गया, जिससे कांग्रेस और संभावित वोटरों के बीच दूरी और गहरा गई.

खड़गे की 20 अप्रैल को बक्सर की जनसभा में आई कम भीड़ असली तस्वीर सामने लाने के लिए काफी थी. जाहिर है, चुनाव केवल इरादे से नहीं जीते जा सकते. फिलहाल, गठबंधन में गांठें उभरी तो दिख रही हैं लेकिन दोनों ही दलों के लिए राहें जुदा करना घातक हो सकता है. दोनों अपनी जमीन बचाने को लेकर सतर्क हैं. जैसा कांग्रेस के एक नेता ने कहा, ''हमारा गठबंधन दोधारी तलवार है. राजद का आधार हमारा समर्थन कर सकता है लेकिन कुछ लोगों को दूर भी कर सकता है.'' यह एक दुविधा है और पार्टी को जल्द से जल्द इसे सुलझाना होगा.

कांग्रेस ने बिहार में वर्षों बाद पार्टी को पुनर्जीवित करने के प्रयास शुरू किए हैं और राहुल गांधी भी तीन बार राज्य का दौरा कर चुके हैं. तेजस्वी यादव को गठबंधन की समन्वय समिति का प्रमुख बनाया गया है, जिससे संकेत मिलता है कि कांग्रेस अभी तक तो गठजोड़ में बदलाव की पक्षधर नहीं लगती.

Advertisement
Advertisement